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भामिनी-विलासे + किः । गह्वरं-गाह्यते, गाहू विलोडने + वरच् (उणादि निपात्यते) गिरिगह्वरेषु गिरेः = पर्वतस्य गह्वराणि=गुहा इति यावत्, तेषु । कदापि
= कस्मिंश्चिदपि काले। न सञ्चरेः = विचरणं न कुर्याः । यदि । स्तनन्धयः = मातुः स्तनपाननिरतः अपि । एतेनातिशिशुत्वं व्यज्यते । हरेः = सिंहस्य शिशुः = शावकः । बुध्यते जागति चेत् । तर्हि । मही - पृथ्वी । करेणवः = हस्तिन्य एव परिशेषिताः = अवशिष्टाः कृताः यस्यां सा एवंभूता निहताखिलगजेन्द्रा इत्यर्थः । भविता- भविष्यति ।
भावार्थ-हे गजशावक ! अत्यन्त मदमें चूर होकर कभी भी इन गिरिगुफाओंमें विचरण न करना; क्योंकि यदि कहीं सिंहका दुधमुंहा बच्चा भी जाग गया, तो समझो संसारमें केवल हथिनियाँ ही शेष रह जायेंगी।
टिप्पणी-शत्रु छोटा है इसलिये उसकी उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिये । यदि वह तेजस्वी एवं शौर्यवान् है तो निश्चय ही समूल विनाश कर डालेगा । इसी भावको इस अन्योक्तिसे व्यक्त किया है। यद्यपि इसीसे मिलता-जुलता भाव पूर्व श्लोकमें व्यक्त कर चुके हैं फिर भी यह पुनरुक्ति नहीं है। क्योंकि उसमें उन्मत्त गजेन्द्रको मृगेन्द्रसे सावधान किया गया है
और यहाँ गजपोतको सिंहशावकसे । साथ ही 'स्तनंधय' इस विशेषणसे सिंहशिशुका स्वाभाविक शौर्य भी प्रकट होता है । अर्थात् गर्व क्या करते हो, सिंहका दुधमुंहा बच्चा भी यदि जाग गया तो तुम्हारे वंशोच्छेदनके लिये पर्याप्त है, फिर मृगेन्द्रकी तो बात ही क्या है । हथिनियोंको स्त्रीत्वेन अवध्य समझकर उनपर हाथ नहीं उठायेगा; क्योंकि अबलाओं पर हाथ छोड़ना शूरताके विपरीत है।
इस पद्य अतिशयोक्ति अलंकार है। मञ्जभाषिणी छन्द है। लक्षण-स ज सा ज गौ भवति मजुभाषिणी ( वृत्त० ) ॥५१॥ यदि अपने में गुण है तो किसीकी भी उपेक्षा क्या कर लेगीनिसर्गादारामे तरुकुलसमारोपसुकृती
कृती मालाकारो वकुलमपि कुत्रापि निदधे ।
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