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अन्योक्तिविलासः
टिप्पणी-बड़ोंका पराक्रम भी बड़ोंपर ही शोभा देता है। इसी भावको इस अन्योक्ति द्वारा व्यक्त किया गया है। पूर्व पद्यकी अपेक्षा इसमें यह अन्तर है कि वहाँ हरिणाली एक प्रकारसे शरणागत थी; किन्तु यहाँ हरिण यदि औद्धत्य भी करे तो भी क्षुद्र समझकर उसे छोड़ देनेमें ही सिंहकी प्रतीष्ठा है । इसमें अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है ।
रथोद्धता छन्द है लक्षण-रो न राविह रथोद्धता लगौ (वृत्त०) ॥४९॥ किसी प्रकारका गर्व करनेसे पूर्व अपनेसे अधिक शक्तिशालीकी उपस्थितिका ध्यान रखेंस्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मन्दान्धेक्षण सखे
गजश्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां वनभुवि । असौ कुम्भिधान्त्या खरनखरविद्रावितमहा
गुरुग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः ॥५०॥
अन्वय-रे मदान्वेक्षण ! सखे ! गजश्रेणीनाथ ! इह, जटिलायां वनभुवि, क्षणमपि, स्थिति, नो, दध्याः, कुम्भिभ्रान्त्या, खरनखरविद्रावितमहागुरुग्रावग्रामः, असौ, हरिपतिः, गिरिगर्भे, स्वपिति ।
शब्दार्थ-रे मदान्धेक्षण = अरे मद (घमण्ड ) से नष्टदृष्टिवाले । सखे = मिन । गजश्रेणीनाथ = हाथियोंके समूहके स्वामी । इह = इस । जटिलायां = कठिन । वनभुवि = वनभूमिमें। क्षणमपि = क्षणभर भी। स्थितिं नो दध्याः = स्थित न रहना। कुम्भिभ्रान्त्या = हाथियोंकी भ्रान्तिसे ( अर्थात् हाथी समझकर )। खरनखरतीक्ष्ण नखोंसे, विद्रावित = विदीर्ण कर दिया है, महागुरु = बहुत भारी, प्रावग्राम = पत्थरोंके समूहोंको जिसने, ऐसा । असौ = यह । हरिपतिः = मृगेन्द्र । गिरिगर्भ = पर्वत-गुफामें स्वपिति = सो रहा है।
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