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भामिनी-विलासे रसालोऽसौ इति, वृक्षो महीरुहः शाखी इति च-अमरः) दैवात् = भाग्यवशात् ( दैवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं-अमरः ) कृशां = क्षीणां । दशाम् = अवस्थाम् । अञ्चति-स्वीकुर्वति सति । त्वं । विनयं = प्रश्रयं । मुश्चसि =जहासि चेत् । त्वत् = त्वत्तः अन्यः = इतरः । नीचः कृतघ्न इति यावत् । कः अस्ति । न कोऽपीति भावः ।।
भावार्थ-हे भ्रमर ! वसन्तके प्रारम्भमें जिस आम्रवृक्ष की चारों ओर खिली हुई मंजरियोंके समूहमें मधुर गुंजार करते हुए तूने इच्छाविहार किये हैं। आज भाग्यवशात् उसी आमके, पल्लवादिसे हीन हो जानेपर तू उसे छोड़ देता है तो तेरे समान नीच संसारमें कौन होगा?
टिप्पणी-जिसके आश्रित रहकर परम ऐश्वर्यका उपभोग किया है, दैवयोगसे उसके विपत्तिग्रस्त होनेपर यदि उसका साथ छोड़ दिया जाय तो इससे बढ़कर कृतघ्नता दूसरी हो नहीं सकती । केवल अपने ही स्वार्थको देखनेवाला व्यक्ति नीच ही नहीं, परम नीच है। इसी भावको इस अन्योक्तिसे व्यक्त किया गया है। यहाँ रसाल पद उसकी रसवत्ता अर्थात् सज्जनताका द्योतक है। इस समय दैवयोगसे वह पतझड़ भले हो हो गया है; किन्तु पुनः वसन्त आनेपर उसमें भौंरे मंडराने लगेंगे और वह पराग लेनेसे किसीको मना नहीं करेगा। यह उसकी महत्ताका सूचक है। इसी प्रकार चञ्चरीक पद भी भ्रमरकी स्वार्थपरताका द्योतक है; क्योंकि वह स्वभावतः चंचल है जहाँ उसे रस मिलता है वहीं दौड़ा फिरता है। उसकी यह विचरणशीलता और स्वार्थान्धता संसार जानता है। इससे उसका औद्धत्य भी प्रकट होता है । उत्प्रेक्षा अलंकार है।
शार्दूलविक्रीडित छन्द है ( दे० ल० श्लो० ३ ) ॥४६॥ ऐश्वयंसे उन्मत्त न हों, आनेवाली विपत्तिका भी ध्यान रखेंएणीगणेषु गुरुगर्वनिमीलिताक्षः
किं कृष्णसार खलु खेलसि काननेऽस्मिन् ।
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