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भामिनी-विलासे टोका--रे राजहंस = मरालनायक ! यत्र = यस्मिन् सरोवरे । भवता । मृणालानां विसतन्तूनां पटली = संहतिः मृणालं-मृण्यते / मृण हिंसायां + कालन्; पटली-पटं लाति, पट+/ला दाने + कः + ङीप् ) भुक्ता = आस्वादिता। अम्बूनि = जलानि । निपीतानि = रसितानि । निलनानि = कमलानि ( नलति, णल् गन्धे+इनन्)। निषेवितानिउपवेशनादिभिरुपभुक्तानि । तस्य = तवैवं कृतोपकारस्य । सरोवरस्य = कासारश्रेष्ठस्य । केन । कृत्येन = कार्येण । कृतः उपकारो येन स कृतोपकारः = विहितप्रत्युपकृतिः । भवितासि-भविष्यसीत्यर्थः । वद-कथय ।
भावार्थ-हे राजहंस ! तुमने जिस सरोवरमें रहकर विसतन्तुओंका जी भरकर भोजन किया, जल पिया, कमलोंका यथेच्छ उपयोग किया, उस सरोवरके उपकारका बदला तुम किस कार्यसे दोगे।
टिप्पणी-शास्त्रोंका आदेश है-यदि कोई हमारा किंचित् भी उपकार करता है तो हमें भी बदले में उसका कुछ उपकार करना ही चाहिये; अन्यथा हम उसके ऋणी रह जायेंगे। किन्तु जिसने जीवन में ऐश्वर्यकी सभी सामग्रियां हमारे लिये उपलब्ध कर दी हैं उसके उपकारका बदला हम क्या करके चुकाएँ। इसी भावको लेकर कविने यह हंसान्योक्ति कही है। सरके साथ 'वर' ( श्रेष्ठ ) यह विशेषण उसकी सामर्थ्यशालिता और निःस्वार्थ भावका द्योतक है। इसी प्रकार राजहंस सम्बोधनके साथ रे यह पद हंसकी तुच्छता और अल्प सामर्थ्यको सूचित करता है । तात्पर्य यह है कि दूसरोंसे हम उतनी ही सहायता लें जितनेका प्रत्युपकार कर सकनेकी सामर्थ्य रक्खें। यह परिकराङ्कर अलंकार है । वसन्ततिलका छन्द है ॥४५॥ विपन्न हुए आश्रयदाताको छोड़ना नीचता हैप्रारम्भ कुसुमाकरस्य परितो यस्योल्लसन्मञ्जरीपुञ्जे मञ्जुलगुञ्जितानि रचयंस्तानातनोरुत्सवान् ।
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