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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्योक्तिविलासः ७७ उपभोग कर रहा है वही कलको किसी सामान्य व्यक्तिकी शरणमें जा सकता हैं। ऐसी स्थितिमें वह सामान्य व्यक्ति उस शरणागतकी पूर्वदशाका विचार न करता हुआ तिरस्कार करे वा उसकी अभिलाषा पूर्ण करने में कंजूसी करे तो उसके इस अविवेकको क्या कहा जाय । इसी भावको कविने इस कमलान्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। अम्बुज पद साभिप्राय है । जल ( डलयोरभेदात् जड़ ) से उत्पन्न कमलका जड़बुद्धि या विवेकशून्य होना स्वाभाविक ही है। पौलोमी-(पुलोम्नः अपत्यं स्त्री) पुलोमा नामका एक दानव था । इन्द्रने उसे मारकर उसकी पुत्रीसे विवाह कर लिया। वही पौलोमी शची इद्राणी आदि नामोंसे कही जाती है। इसमें परिकर अलंकार तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द है ॥४४॥ व्यक्तिको कृतज्ञ होना चाहियेभुक्ता मृणालपटली भवता निपीता न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि । रे राजहंस वद तस्य सरोवरस्य कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः॥४॥ अन्वय-रे राजहंस ! यत्र, भवता, मृणालपटली, भुक्ता, अम्बूनि, निपीतानि, नलिनानि, निषेवितानि, तस्य, सरोवरस्य, केन, कृत्येन, कृतोपकारः, भवितासि, वद ।। शब्दार्थ-रे राजहंस = हे हंसोंमें श्रेष्ठ ! यत्र = जहाँ ! भवता= आपने। मृणालपटली = कमलनालके समूहको । भुक्ता = खाया । अम्बूनि=जलोंको । निपीतानि = पिया । नलिनानि = कमलोंको । निषेवितानि = उपभोग किया। केन कृत्येन = किस कार्यके द्वारा। तस्य सरोवरस्य = उस तड़ागके । कृतोपकारः = उपकार किया हुआ । भवितासि = होओगे । वद = बोलो। For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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