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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ भामिनी-विलासे रत्न पत्थरोंके साथ लोटते हैं । तुम्हारे जलमें भगवान् विष्णु मत्स्यनक्रादि क्षुद्र जलचरोंके साथ शयन करते हैं । इस प्रकार तुम्हारे इस परम ऐश्वर्य और विवेकहीनताके लिये मैं तुम्हारी प्रशंसा करूं या निन्दा, तुम्हीं बताओ। टिप्पणी-पूर्वश्लोकमें दर्शाया है कि गुणवान्को गुणीका आदर और अपनेसे उच्चकी संगति करनी चाहिये। तब प्रश्न होता है कि गुणहीनोंका क्या होगा और सज्जनकी समदर्शिता कैसे मानी जायगी ? इसी प्रश्नके उत्तरको इस क्षीराणवान्योक्ति द्वारा व्यक्त किया है। समदर्शिताके माने विवेकहीन होना नहीं होता। जो व्यक्ति या पदार्थ जितने सम्मानका पात्र है उसका उतना ही आदर होना समदृष्टि या विवेककी कसौटी है । सूर्यसदृश दीप्तिमान् मणियाँ जिस समुद्रके तटपर सामान्य पत्थरोंके साथ टकरा रही हों उसे हम ऐश्वर्यशाली समझें या मूर्ख ? क्योंकि उन मणियोंका, जिनके कारण हम उसे समृद्धिशाली समझनेकी चेष्टा करते हैं, वह उतना ही आदर कर रहा है; जितना उन क्षुद्र पत्थरोंका, जिनसे वे टकरा रही हैं। ऐसे ही जगद्वन्ध भगवान् विष्णु उसके जलपर उसी प्रकार सो रहे हैं जैसे अन्य क्षुद्र जलचर जन्तु । इस प्रकार मणियोंके ढेर अथवा भगवान्के शयनसे जहाँ समुद्रके प्रति हमारे हृदयमें सम्मानका भाव उदय होता है वहीं पत्थरों एवं जलचरों द्वारा उनकी समानतासे उसकी अविवेकिताका सन्देह भी। इस पद्यके द्वारा कविने किसी ऐसे धनकुबेरपर स्पष्ट कटाक्ष किया है जिसने सम्भवतः कविको अन्य सामान्य पंडितोंके सदृश ही सम्मानभाजन बनाया है। यहाँ सन्देह अलंकार है। शार्दूलविक्रीडित छन्द है ( ल० दे० श्लो० ३) ॥३९।। सम्पत्तिका सदुपयोग करनेमें ही महत्ता हैकिं खलु रत्नैरेतैः किं पुनरभ्रायितेन वपुषा ते । सलिलमपि यन्त्र तावकमर्णव वदनं प्रयाति तृषितानाम् ।४० For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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