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अष्टाङ्गहृदये
चमेलीके पत्ते नीबके पते परवलके पत्ते कुटकी दारुहलदी हलदी अनंतमूल मंजीठ कालावाला शिरसके बीज तूतिया मुलहटी करंजुआके बीज इन्होंसे सिद्धकिये प्रतकी मालिसकरके सूक्ष्म मुखवाले और मर्ममें आश्रितहुये और क्लेदवाले और गंभीर और बहनेवाले और पीडासे संयुक्त घाव तत्काल शुद्ध होकर पीछे अंकुरको प्राप्त होतेहैं ॥ ६७ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने पंचविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
षड्विंशोऽध्यायः। अथातः सद्योव्रणप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर सद्योव्रणप्रतिषेध नामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
सद्योत्रणा ये सहसा सम्भवन्त्यभिघाततः॥ अनन्तैरपि तैरंगमुच्यते जुष्टमष्टधा ॥१॥ घृष्टावकृत्तविच्छिन्नप्रविलम्बितपातितम् ॥
विद्धं भिन्नं विदलितम्चोटके लगनेसे जो वेगसे सद्योव्रण उपजतेहैं, तिन अनंतोंकरकेभी शरीर जुष्टहोताहै, परंतु ये आठ प्रकारके कहेहैं ।। १ ॥ घृष्ट अवकृत्त विच्छिन्न प्रलंबित पातित विद्र भिन्न विदलित हैं ।।
तत्र घृष्टं लसीकया ॥२॥रक्तलेशेन वायुक्तंसप्लोपं छेदनात्स्रवेत् ॥अवगाढं ततः कृत्तं विच्छिन्नं स्यात्ततोऽपि च ॥३॥प्रविलम्बि सशेषेऽस्थि पातितं पतितं तनोः॥ सूक्ष्मास्यं शल्यविद्धं तु विद्धं कोष्ठविवर्जितम् ॥ ४॥ भिन्नमन्यद्विदलितं मजरक्तपरिप्लुते ॥प्रहारपीडनोत्पेषात्सहास्थ्ना पृथुतां गतम् ॥ ५॥ तिन्होंमें घृष्टलसिकासे ॥ २ ॥ अथवा रक्तके लेशसे युक्तहुआ झिरताहै और छेदनसे अग्निदग्ध रोगकी तरह झिरताहै, और तिससे अवगाढरूप करताहुआ अवकृत कहाताहै, और तिससे अत्यंत अवगाढरूप विच्छिन्नहै ॥ ३॥ और शेषरही हड्डीमें प्रविलंबीहै, और शरीरके सकाशसे जो पडै वह पातित कहाहै और सूक्ष्म मुखवाले शल्यसे विधाहुआ विद्धकहाहै, और कोष्ठस्थानसे अन्य जगह वींधा हुआ ॥ ४ ॥ भिन्न कहाहै मज्जा और रक्तसे भीजाहुआ और महापीडन उत्पेषणसे हड्डीके साथ पृथुभावको प्राप्त हुआ विदलित कहाताहै ॥ ५ ॥
सद्यः सद्योत्रणं सिञ्चेदथ यष्ट्याह्वसर्पिषा ॥ तीव्रव्यथं कवोष्णेन बलातैलेन वा पुनः॥६॥
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