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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९२१) ऐसे ग्रणके स्वरूपको जानके तीव्र पीडावाले घावको कछुक गरमकिये मुलहीके घृतसे अथवा वारंवार बलातेलते सेचितकरै ॥ ६ ॥
क्षतोष्मणो निग्रहार्थं तत्कालं विसतस्य च ॥
कषायशीतमधुरस्निग्धा लेपादयो हिताः॥७॥ क्षतकी गरमाईके शान्तिके अर्थ और तत्काल निकसेहुयेकी शांतिके अर्थ कसैले शीतल मधुर स्निग्ध लेप आदि हितहैं ॥ ७॥
सद्योत्रणेष्वायतेषु सन्धानार्थं विशेषतः ॥
मधुसर्पिश्च युञ्जीत पित्तनीश्च हिमाः क्रियाः ॥ ८॥ और विस्तृतहुये तत्काल उपजे घावोंमें सन्धानके अर्थ विशेषकरके शहद और घृत तथा पित्तको नाशनेवाली शीतल क्रियाको प्रयुक्तकरै ॥ ८ ॥
ससंरम्भेषु कर्त्तव्यमूर्ध्वं चाधश्च शोधनम् ॥
उपवासो हितं भुक्तं प्रततं रक्तमोक्षणम् ॥ ९॥ संरंभवाले घाओंमें वमन और जुलाबसे शोधन और लंघन और अवस्थाके वशसे पूर्वोक्त भोजन और निरंतर रक्तका निकालना ये हितहैं ॥९॥
घृष्टे विदलिते चैष सुतरामिष्यते विधिः ॥
तयोल्पिं स्त्रवत्यत्रं पाकस्तेनाशु जायते ॥१०॥ घृष्टमें और विदलितमें यही पूर्वोक्त चिकित्सा श्रेष्ठहै और तिन्ही दोनोंमें पाक अल्प रक्त निकसताहे, तिसकरके तिन दोनोंका पाक शीघ्र होजाताहै ॥ १०॥
अत्यर्थमा स्रवति प्रायशोऽन्यत्र विक्षते ॥ ततो रक्तक्षयाद्वायौ कुपितेतिरुजाकरे ॥ ११ ॥ स्नेहपानपरीषेकस्वेदलेपोपनाहनम् ॥
स्नेहबस्ति च कुर्वीत वातनौषधसाधितम् ॥ १२॥ विशेषकरके अन्य स्थानमें क्षतके होनेमें अत्यंत रक्त झिरताहै पीछे रक्तके क्षय होनेसे अत्यंत पीडा करनेवाला और कुपितहुआ वायु हो उसमें ॥११॥ स्नेह पान परिसेक स्वेद लेह उपनाहन और वातको नाशनेवाले औषधमें साधितकिया स्नेह बस्तिमें उपयोग करै ॥ १२ ॥
इति साप्ताहिकः प्रोक्तः सद्योव्रणहितो विधिः॥
सप्ताहाद्गतवेगे तु पूर्वोक्तं विधिमाचरेत् ॥१३॥ ऐसे सात दिनोंतक सद्योत्रणमें हित विधि कहीहै, और सातदिनोंसे उपरांत क्षोभके हटजानेमें पूर्वोक्त विधिको आचरितकरै ॥ १३ ॥
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