________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
कालीयकलताम्रास्थिहेमकालारसोत्तमैः ॥ ६१ ॥ लेपः सगोमयरसः सवर्णकरणः परम् ॥
और दारुदी मेंहदी आंत्रकी गुठली कमलकंद नीली रसोत ॥ ६१ रस मिलायके किया लेप घावको त्वचाके समान करदेता है ||
(९१९ )
इन्होंमें गोबरका
दग्धो वारणदन्तोऽन्तर्धूमं तैलं रसाञ्जनम् ॥ ६२ ॥ रोमसञ्जननो लेपस्तद्वत्तैलपरिपुता ॥
चतुष्पान्नखरोमास्थित्वक्छृङ्गखुरजा मषी ॥ ६३ ॥
ऐसे दग्ध किया हाथीका दंत जिसमें भीतरको धूम रहे तेल रसोत ॥ ६२ ॥ इन्होंका लेप रोमोंको उपजाताहै, और ऐसेही चौपाया पशुके नख और रोम और खुर इन्होंकी बनाई स्वाही में तेल मिला किया लेप रोमोंको उपजाता है ॥ ६३ ॥
त्रणिनः शस्त्रकर्मोक्तं पथ्यापथ्यान्नमादिशेत् ॥ वाववालेको शस्त्रकर्ममें कहे पथ्य और अपश्यरूप अन्नका देना उचित है ||
द्वे पञ्चमूले वर्गश्च वातघ्नो वातिके हितः ॥ ६४ ॥ न्यग्रोधपद्मकाद्यौ तु तद्वत्पित्तप्रदूषित ॥
For Private and Personal Use Only
आरग्वधादिः श्लेष्मन्नः कफे मिश्रस्तु मिश्रके ॥ ६५ ॥
और दशमूल बातको नादानेवाला वर्ग वातके घाव में हितहें ॥ ६४ ॥ न्यग्रोधादि गण और पद्मकादिगण पित्तसे दुष्टहुये वात्रमें हित है और आरग्वधादिगण और कफको नारानेवाली औषध कफके घात्रमें हितहै, और दो तथा तीन दोषोंसे मिलेहुये घाव में मिश्रितरूप औषध हितहै ॥ ६९ ॥ एभिः प्रक्षालनालेपघृततैलरसक्रियाः
चूर्णो वर्त्तिश्च संयोज्या व्रणे सप्त यथायथम् ॥ ६६ ॥
इन औषधोंसे धोना लेप व्रत तेल रसक्रिया चूर्ण वर्ति ये सातों यथायोग्य घाव में प्रयुक्त करने योग्यहैं ॥ ६६ ॥
जातीनिम्बपटोलपत्रकटुकादार्वी निशासारिवामञ्जिष्ठाभयसिद्धतुत्थमधुकैर्न क्ताह्नवीजान्वितैः॥ सर्पिः साध्यमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः क्लेदिनो गम्भीराः सरुजो व्रणाः सगतयः शुध्यन्ति रोहन्ति च ॥ ६७ ॥