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अष्टाङ्गहदयेदुगंधित मांस रहित और मांससे स्थित वाव नहीं रोपित होवे तो ॥ ५३॥ तिलोंके कल्कमें मुलहटी मिला लेप करनेसे तिन बावोंपै अंकुर आजाताहै ।।
स्निग्धोष्णतिक्तमधुरकषायत्वैः स सर्वजित् ॥ ५४॥ सक्षौद्रनिम्बपत्राभ्यां युक्तः संशोधनं परम् ॥ पूर्वाभ्यां सर्पिषा चासौ युक्तः स्यादाशुरोपणः॥ ५५॥ और स्निग्ध गरम तिक्त मधुर कसैले द्रव्यों से संयुक्त किया तिलोंका कल्क सब रोगोंको जीतताहै ।। ५४ ॥ शहद और नींबके पत्तोंसे युक्त किया तिलोंका कल्क उत्तम शोधनहै, और नींवके पत्ते सहद घृतसे युक्त तिलोंका कल्क बावको शीब रोपित करताहै ॥ ५५ ॥
तिलवद्यवकल्कं तु केचिदिच्छन्ति तद्विदः॥ कितने इस कर्मको जाननेवाले वैद्य तिलोंके कल्ककी समान जवोंकोभी इच्छा करते हैं ।।
सास्त्रपित्तविषागन्तुगम्भीरान्सोष्मणो व्रणान् ॥ ५६ ॥ क्षीररोपणभैषज्यं तेनाज्येन रोपयेत् ॥
रोपणौषधसिद्धेन तैलेन कफवातजान् ॥ ५७॥ और रक्तपित्त विष आगंतु गंभीर गरमाईसे संयुक्त घावोंको ॥५६॥ दूध रोपणके औषधमें पकायेहुये तसे रोपित करै, और रोपण करनेवाले औषधों में सिद्धकिये तेलसे कफ और वातस दुष्टहुये घावोंको रेपितकरै ।। १७ ॥
काच्छीरोधाभयाससिन्दूराजनतुत्थकम् ॥
चूर्णितं तैलमदनैर्युक्तं रोपणमुत्तमम् ॥ ५८॥ काच्छी लोध हरडै राल सिंदूर रसोत नीलाथोथा मैनफलमें संयुक्तकिया तेल उत्तम रापण: ५८
समानां स्थिरमांसानां त्वक्स्थानां चूर्ण इष्यते॥ सम और स्थिर मांसवाले और त्वचामें स्थित बावोंपै इन औषधोंका चूर्ग वाञ्छितहै ।।
ककुभोदुम्बराश्वत्थजबूकटफलरोधजैः ॥ ५९ ॥
त्वचमाशु निगृह्णन्ति त्वक्चूर्णैचूर्णिता ब्रणाः॥ कौहवृक्ष गूलर पीपलवृक्ष जामन कायफल लोधी ॥ ५९ ॥ छालोंके चूगोंसे चूर्णितडेय वाव अंकुरको प्राप्त होतेहैं ।
लाक्षामनोह्वामञ्जिष्ठाहरितालनिशाद्वयैः ॥६०॥
प्रलेपः सघृतक्षौद्रस्त्वग्विशुद्धिकरः परम् ॥ और लाख मनशिल मंजीठ हरताल हलदी दारुहलदी ॥ ३० ॥ इन्होंसे घृत और शहदरसे संयुक्त किया लेप त्वचाको विशेषकरके शुद्ध करताहै ।।
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