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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(९१७) पित्त रक्त विषकी अधिकतावाले घावोंको शीतल पदार्थोसे अत्यंत निर्वापित करना और शुष्क तथा अल्पमांससे संयुक्त और गंभीर घावमें उत्सादन करना हितहै अर्थात ऊपरको उकसाना चाहिये ॥ ४६॥
न्यग्रोधपद्मकादिभ्यामश्वगन्धावलातिलैः॥ अद्यान्मांसादमांसानि विधिनोपहितानि च ॥४७॥
मांसं मासादमांसेन वर्द्धते शुद्धचेतसः ॥ न्यग्रोधादिगण और पद्मकादि गण असगन्ध खरेहटी तिलके संग मांसोंको खानेवाले जीवोंके विधिसे प्राप्तहुये मांसोको खावै ॥ ४७ ॥ शुद्धचित्तवाले मनुष्यका मांस मांसको खानेवाले जीवोंके मांसको खानेसे बढता है ॥
उत्सन्नमृदुमांसानां व्रणानामवसादनम् ॥४८॥ जातीमुकुलकाससिमनोहालपुराग्निकैः॥ उत्सन्नमांसान्कठिनान्कण्डूयुक्तांश्चिरोत्थितान् ॥ ४९ ॥ व्रणान्सुदुःखशोध्यांश्च शोधयेत्क्षारकर्मणा ॥ और ऊँचे तथा कोमल मांसवाले घावोंका अवसादन करना अर्थात् नीचाकरना उचित ॥४८॥ चमेलीकी कली कसीस मनशील हरताल गूगल चीता इन्होंसे ऊँचे मांसवाले कठिन खाजयुक्त और चिरकालसे उपजे ॥ ४९ ॥ घावोंको और दुःखसाध्य घावोंको खारकर्मसे शोधितकरे ।
स्रवन्तोऽइमरिजा मूत्रं ये चान्ये रक्तवाहिनः ॥५०॥ छिन्नाश्च सन्धयो येषां यथोक्तैर्ये च शोधनैः॥ शोध्यमाना न शुध्यन्ति शोध्याः स्युस्तेऽग्निकर्मणा ॥ ५१॥
शुद्धानां रोपणं योज्यमुत्सादाय यदीरितम् ॥ और पथरीसे उपजे और मूत्रके झिरातेहुये और रक्तको बहानेवाले अन्य ॥ ५० ॥ और जिन्होंकी संधि नष्ट होजावे ऐसे और यथोक्त शोधनोंसे नहीं शोध्यमानहुये घाव अग्निकर्मसे शोधित करने योग्यहैं ॥ ५१ ॥ शुद्धहुये घावोंके उत्सादनकर्मके अर्थ जो कहाहै वह रोपण करनेके अर्थ प्रयुक्तकरना योग्यहै॥
अश्वगन्धारुहारोधं कट्रफलं मधुयष्टिका ॥ ५२॥
समङ्गाधातकीपुष्पं परमं व्रणरोपणम्॥ और आसगंध तीली दूब लोध कायफल मुलहटी ॥५२॥ मजीठ धायके फूल ये धावको अतिशय रोपित करतेहैं।
अपेतप्रतिमांसानां मांसस्थानामरोदताम् ॥ ५३॥ कल्कं सरोहणं कुर्य्यात्तिलानां मधुकान्वितम् ॥
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