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मूत्रस्थानं भाषाटीसमेतम् । (३५) यह अभिष्यंदि नहीं है और यह रूक्ष नहीं है किंतु पीने आदिमें यह अमृतके समान फलको देता है और चन्दन-खस–कपूर-मोती-पुष्पोंकी माला-सुंदरवस्त्र-इन्हों करके प्रकाशितरूप रहे॥१३॥
सोधेषु सौधधवलां चन्द्रिकां रजनीमुखे ॥
तुषारक्षारसौहित्यदधितैलवसानपान् ॥ ५४ ॥ और धवलरूपस्थानोंके पृष्ठभागमें स्थित हुआ चंद्रमाकी चांदनीको प्रदोषसमयमें सेव और इस शरदऋतुमें--औश खार-तृप्ति-दही-तेल-वसा-घाम- ॥ १४ ॥
तीक्ष्णमद्यदिवास्वप्नपुरोवातान्परित्यजेत् ॥
शीते वर्षासु चाद्यांस्त्रीन् वसन्तेऽन्त्यान रसान भजेत् ॥५५॥ तेज मदिरा-दिनका शयन-पूर्वका वायु-इन्हींको त्यागै और हेमंत शिशिर वर्षा-इन तीन ऋतुओंमें स्वादु खट्टा लवणाख्य-इन तीन रसोंको सेवै ॥ ५५ ॥
स्वादुं निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् ॥
शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं धर्मघनान्तयोः॥ ५६ ॥ और ग्रीष्मऋतुमें स्वादुरसको सेवै और शरदूऋतुमें स्वादु-तिक्त-कषाय-इन तीन रसोंको सेवे शरदू और वसंतमें रूक्षको, ग्रीष्म और शर- शीतलको सेवै ॥ ५६ ..
अन्नपानं समासेन विपरीतमतोऽन्यदा ॥ नित्यं सर्वरसाभ्यासः सत्त्वाधिक्यमृतावृतौ ॥ ५७॥ ऐसे विस्तारकरके अन्नपान कहा और इससे दूसरी तरह सेवित किया अन्नपान अर्थात उष्णरूप अन्नपान हेमंत-शिशिर-प्रीष्म-वर्षा-इन्होंमें कहाहै और नित्यप्रति छहों रसोका अभ्यास करता रहे और ऋतुऋतुके अनुसार जो जो रस योग्यहै तिसको अधिकसवै ॥ ५७ ।।
ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहावृतुसंधिरिति स्मृतः ॥ . तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्रमात् ॥ ५८ ॥ दो दो ऋतुओंके आदि और अंतके जो सातसात दिन हैं वे ऋतुसंधि कहाते हैं तहां पूर्वऋतुकी विधिको त्यागना और आगली ऋतुकी विधिको क्रमसे सेवना ॥ ५८ ॥
असात्म्यजा हि रोगाः स्युः सहसा त्यागशीलनात् ॥ ५९॥ सहसा अर्थात् एकदमसे त्याग तथा अभ्यास करनेसे असात्म्यज अर्थात् अनुचितसे उपजे रोग होतेहैं ॥ ५९॥ इति वैरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टाङ्गहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
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