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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९१३) । कुष्टिना विषजुष्टाना शोषिणां मधुमेहिनाम् ॥
व्रणाः कृच्छ्रेण सिद्धयन्ति येषां च स्युर्बणे व्रणाः॥१७॥ झाग राद वायुको वहनेवाला और शल्यसे संयुक्त और ऊपरको नहीं वमन करनेवाला और भीतरको मुखवाला और कमरकी हड्डीमें संश्रित और भगको विदारण करनेवाला घाव ॥१६॥ और कुष्ठवाले विषसे संयुक्तहुये और शोपवाले और मधुमेहवाले और जिन्होंके घावमें घाव उपजै वे मनुष्योंके घाव कप्टसे सिद्ध होतेहैं ॥ १७ ॥
नैव सिद्धधन्ति वीसर्पज्वरातीसारकासिनाम्॥ पिपासूनामनिद्राणां श्वासिनामविपाकिनाम् ॥ १८॥
भिन्ने शिरःकपाले वा मुस्तुलुङ्गस्य दर्शने ॥ विसर्पज्वर अतीसार खांसीवालोंके और पान करनेकी इच्छावालोंके और नीदको नहीं प्राप्त होनेवालोंके और श्वासवालोंके और विपाकके अभाववालों के ॥ १८ ॥ अथवा भेदितहुये शिरके कपालमें और माथेके भीतरके स्नेहके दीखजानेमें घाव नहीं सिद्ध होते हैं । स्नायुक्दाच्छिराछेदागाम्भीर्याकृमिभक्षणात् ॥१९॥अस्थि भेदात्सशल्यत्वात्सविषत्वादतर्कितात् ॥ मिथ्याबन्धादतिनेहाद्रौक्ष्याद्रोमातिघट्टनात् ॥ २० ॥क्षोभादशुद्धकोष्ठत्वात्सौहित्वादतिकर्षणात् ॥ मद्यपानादिवास्वापाद्वयवायाद्रात्रिजागरात् ॥ २१॥वणो मिथ्योपचाराच्च नैव साध्योऽपि रोहति॥ नसके लेदसे नाडीके कटजानेसे गंभीरपनसे कीडोंसे भक्षण करनेसे ॥ १९ ॥ और हहुीके टूटजानसे, रूखेपनसे और शल्यसे संयुक्तपनेसे और विषसे संयुक्तपनेसे और तर्कितपनेके अभाबसे और मिथ्याबंधसे और अत्यंत स्नेहसे और रूखेपनेसे और रोमोंके भति घट्टनपनेसे ॥ २०॥ और क्षोभसे और अशुद्ध कोष्ठपनेसे और सौहित्यपनेसे और अत्यंत कर्षणसे और मदिराके पनिसे और दिनके शयनसे और स्त्रीका संग करनेसे और रात्रिमें जागनेसे ॥ २१ ॥ और मिथ्या चिकित्सासे साध्यरूपभी घाव नहीं अंकुरित होताहै ॥
कपोतवर्णप्रतिमा यस्यान्ताः क्लेदवजिताः ॥२२॥ स्थिराश्चिपिटिकावन्तो रोहतीति तमादिशेत् ॥ और कबूतरके वर्णके समान प्रतिमावाले और क्लेदसे वर्जित अंत जिस घावका होवे ॥ २२ ।। स्थिर और चिपिटकाओंवाला अंतहोवे तिस घावको अंकुरित हुआ कहो ।।
अथात्र शोफावस्थायां यथासन्नं विशोधनम् ॥ २३॥ योज्यं शोफो हि शुद्धानां व्रणश्चाशु प्रशाम्यति ॥
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