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(९१२)
अष्टाङ्गहृदयेकफसे पांडुरूप खाजसे संयुक्त और बहुतश्वेत तथा धन स्रावसे संयुक्त ओष्ठोंवाला और कठिन नस तथा नाडियोंके जालसे व्याप्त और अल्पपीडासे संयुक्त वाव होताहै ॥ ९ ॥
प्रवालरक्तो रक्तेन सरक्तं पूयमुद्रेित् ॥
वाजिस्थानसमो गन्धे युक्तो लिङ्गैश्च पैत्तिकैः॥१०॥ रक्तसे मूंगाके सदृश लालहुआ घाव रक्तसहित रादको उगलताहै, और गंधमें घोडेके स्थानके समान होताहै, और पित्तके घावके समान लक्षणोंसे युक्त होताहै १० ॥
द्वाभ्यां त्रिभिश्च सर्वैश्च विद्याल्लक्षणसङ्करात् ॥ दो दोषोंकरके अथवा तीन दोषोंकरके संसर्गजआदि घावको जानों ।।
जिह्वाप्रभो मृदुः श्लक्ष्णः श्यावौष्ठपिटिकः समः॥११॥
किञ्चिदुन्नतमध्यो वा व्रणःशुद्धोऽनुपद्रवः ॥ और जीभके समान कांतिवाला कोमल लक्षण और धूम्रवर्ण ओष्ट और पिटिकासे संयुक्त समान ॥ ११॥ कछुक मध्यमें ऊंचा, और उपद्रवोंसे रहित घाव शुद्ध होताहे ।।
त्वगामिषशिरास्नायुसन्ध्यस्थीनि व्रणाशयाः॥ १२ ॥
कोष्ठो मर्म च तान्यष्टौ दुःसाध्यान्युत्तरोत्तरम् ॥ __ और त्वचा मांस नाडी नस संधि हड्डी व्रणाशय ॥ १२ ॥ कोष्ठ मर्म ये आठों उत्तरोत्तर क्रमसे दुःसाध्य कहे हैं ॥
सुसाध्यः सत्त्वमांसाग्निवयोबलवति व्रणः॥१३॥ वृत्तो दीर्घस्त्रिपुटकश्चतुरस्राकृतिश्च यः॥
तथास्फिक्पायुमेद्रोष्ठपृष्ठान्तर्वक्रगण्डगः ॥ १४॥ और सत्त्वगुण मांस अग्नि अवस्था बलवाले मनुष्यका घाव सुसाध्य कहाहै ॥ १३॥ गोल लंबा और तीन पुटकोंवाला और चौकूटी आकृतिवाला कूला गुदा लिंग ओष्ठ पृष्ठ मुखके भीतर कपोलमें प्राप्तहुआ घाव सुसाध्य कहाहै ।। १४ ॥ . कृच्छ्रसाध्योऽक्षिदशननासिकापाङ्गनाभिषु॥
सेवनीजठरश्रोत्रपार्श्वकक्षास्तनेषुच ॥१५॥ नेत्र दांत नासिका कटाक्ष नाभि सीमन पेट कान पसली काख चूंची इन्होंमें घाव कष्टसाध्य कहाहै ॥ १५॥
फेनपूयानिलवहः शल्यवानू निर्वमी॥ भगन्दरोऽन्तर्वदनस्तथा कट्यस्थिसंश्रितः॥१६॥
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