SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 970
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषा टीकासमेतम् । (९०७) उडद सरशों ॥ २६ ॥ लाख अमलतास के पत्ते पुंभाडके बीज आमला इन्होंसे और कोदू तृणोंके खारके पानी से प्रक्षालन करना हिनद्वै ॥ २७ ॥ इन्द्रलुप्ते यथासन्नं शिरां विद्धा प्रलेपयेत् ॥ प्रच्छाय गाढं कासीसमनोहातुत्थकोषणैः ॥ २८ ॥ वन्यामरतरुभ्यां वा गुआमूलफलैस्तथा ॥ तथा लाङ्गलिकामूलैः करवीररसेन वा ॥ २९ ॥ स क्षौद्रक्षुद्रवातीकस्वरसेन रसेन वा ॥ धत्तूरकस्य पत्राणां भल्लातकरसेन वा ॥ ३०॥ अथवा माक्षिक विस्तिलपुष्पात्रिकण्टकैः ॥ इन्द्रलुप्तरोगमें यथायोग्य समीपगत नाडीको बींधके लेपकरै, परंतु प्रथम पानीसे प्रच्छानलकर पीछे हीराकसीस मनशील लीलाथोथा मिरचसे ॥ २८ ॥ अथवा रानमूंग और देवदारुसे अथवा चिरमीकी जड और फलोंसे अथवा कलहारीकी जडोंसे और करके रससे ॥ २९ ॥ अथवा शहद और क्षुद्रवार्ताकुका स्वरस और धत्तूरेके पत्तों का रस इन्होंसे अथवा भिलावेके रससे ॥ ३० ॥ अथवा शहद घृत तिलोंके फूल गोखरू से || तैलाक्ता हस्तिदन्तस्य मषी वा चौषधं परम् ॥ ३१ ॥ अथवा तेलमें भीगी हुई हाथीदांतकी स्याहीसे लेपको करै, यहभी परम औषध है ॥ ३१ ॥ शुक्रोमो मे तन्मषी मेषविषाणजा ॥ वर्जयेद्वारिणा सेकं यावद्रोमसमुद्भवः ॥ ३२ ॥ सफेद रोमोंके उगनेमें तेलसे संयुक्त करी मेंढा के सींगकी श्याही श्रेष्ठ है, और जबतक रोमोंकी उत्पत्ति हो तबतक पानीसे सेक न करें ॥ ३२ ॥ खलतौ पलिते बल्यां हरिल्लोनि च शोधितम् ॥ नस्यवऋशिरोऽभ्यङ्गप्रदेहैः समुपाचरेत् ॥ ३३ ॥ खलतीमें पलितमें बलीमें रोमों के अभाव में शोधित किये रोगीको नस्य मुख और शिरकी मालिश लेपसे चिकित्साकरे ॥ ३३ ॥ सिद्धं तैलं बृहत्याद्यैर्जीवनीयैश्च नावनम् ॥ मांसं वा निम्बजं तैलं क्षीरभुङ् नावयेद्यतिः ॥ ३४ ॥ बृहस्यादि और जीवनीयगण करके सिद्ध किये तेलका नस्य अथवा एक महीनेतक दूधका भोजन करनेवाला और ब्रह्मचर्य्यसे संयुक्त मनुष्य नीबके तेलका नस्य लेवै ॥ ३४ ॥ नीलीशिरीष कोरण्टभृङ्गस्वर सभावितम् ॥ शेल्वक्षतिलरामाणां बीजं काकाण्डकीसमम् ॥ ३५ ॥ पिष्ट्वाजपयसा लोहालिप्तादकशुतापितात् ॥ तैलं शृतं क्षीरभुजो नावनात्पलितान्तकृत् ॥ ३६ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy