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( ९०६)
अष्टाङ्गहृदये
नवे जन्मोत्तरं जाते योजयेदुपशीर्षके ॥ १९ ॥ वातव्याधिक्रिया पक्के कर्म विद्रधिचोदितम् ॥
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और जन्म से पीछे उपजे हुए नवीन उपशिरस्करोगमें ॥ १९ ॥ वातव्याधिकी क्रियाको करै, और पके हुये इसी रोग में विद्रधीविहित कर्मको करै ॥
आमपक्के यथायोग्यं विद्रधीपिटिकार्बुदे ॥ २० ॥ कच्ची और पक्की विद्रधि फुनसी अर्बुद इन्होंमें यथायोग्य कर्मको करै ॥ २० ॥ अरूंषिकाजलोकोभिर्हृतास्रा निम्बवारिणा ॥ सिक्ता प्रभूतलवणैर्लिम्पेदश्वशकृद्रसैः ॥ २१ ॥ पटोलनिम्वपत्रैर्वा सहरिद्रैः सुकल्कितैः ॥ गोमूत्रजीर्णपिण्याककृकवाकुमलैरपि ॥ २२ ॥
जोकों से निकासेहुये रक्तवाली अरूंषिकाको नींबके पानी से सींच पीछे घोडेकी लीदके रसमें बहुतसा नमक मिलाके लेपकरै ॥ २१ ॥ परवल नींबके पत्ते हल्दी इन्होंके कल्कोंसे लेपकरै अथवा गोमूत्र पुरानीखल कुक्कुटकी बीट इन्होंसे लेप करें ॥ २२ ॥
कपालभष्टं कुष्टं वा चूर्णितं तैलसंयुतम् ॥
रूषिकालेपनं कण्डूच्छेददाहर्तिनाशनम् ॥ २३ ॥
खोपडीमें भुना हुआ और तेलसे संयुक्त कूठका चूर्ण अधिकामें लेपके अर्थ श्रेष्ठ है यह खाज द दाह पीडाको नाशता है ॥ २३ ॥
मालतीचित्रका श्वन्ननक्तमालप्रसाधितम् ॥ वचारूंषिकयोस्तैलमभ्यङ्गः क्षुरघृष्टयोः ॥ २४ ॥
मालती चीता कनेर करंजुआ इन्होंमें साबित किया तेल उस्तरा शस्त्रसे घर्षित किये इंद्रलुप्तमें और अरूपी में मालिस करनी हित है ॥ २४ ॥
अशान्तौ शिरसः शुद्ध्यै यतेत वमनादिभिः ॥ नहीं शांति होनेमें शिरकी शुद्धीके अर्थ वमन आदिसे जतन करै ॥ विध्यच्छिरां दारुणके लालाद्यां शीलयेन्मृजाम् ॥ २५॥ नावनं मूर्ध्नि वस्तिञ्च लेपयेच्च समाक्षिकैः॥ प्रियालवीजमधुककुष्ठ माषैः सर्षपैः ॥ २६ ॥ लाक्षाशम्याकपत्रैडगजधात्रीफलैस्तथा ॥ कोरदूषतृणक्षारवारिप्रक्षालनं हितम् ॥ २७ ॥
और दारुणकरोग में मस्तक में सिराको वाँधे और शुद्धि || २५ ॥ नस्य और शिरमें बस्तिका अभ्यासकरै, और शहदसे संयुक्त किये इन वक्ष्यमाण औषधोंका लेपकरे, चिरोंजी मुलहटी कूट
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