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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९०५) और पित्तसे उपजे शिरोभितापमें स्निग्ध मनुष्यकी नाडीको बींधै ।। ११॥तथा शीतलरूप शिरा मुखलेप सेचन शोधन बस्ति ये हितहैं,और जीवनीय गणमें पकायेहुये दूध और घृत पानमें हितहै १२
कर्तव्यं रक्तजेऽप्येतत्प्रत्याख्याय च शंखके ॥ रक्तसे उपजे शिरोभितापमेंभी यही चिकित्सा करनी योग्यहै और शंखक रोगको महाअसाध्य जानके और त्यागकर चिकित्साकरै ।।
श्लेष्माभितापैर्जीर्णाज्यस्नेहितः कटुकैर्वमेत् ॥ १३॥
स्वेदप्रलेपनस्याद्या रूक्षतीक्ष्णोष्णभेषजैः॥ शस्यन्ते चोपवासोऽत्र निचये मिश्रमाचरेत् ॥ १४॥ और कफसे उपजे शिरोभितापमें पुरानेघृतसे स्नेहितहुआ मनुष्य कडुवे औषधोंसे वमनकरै ।। ॥ १३ ॥ पसीना लेप नस्य आदि सब रूक्ष तीक्ष्ण गरम औषधोंसे श्रेष्ठहै, और लंघन करनाभी यहां हितहै, और सन्निपातसे उपजे शिरोभितापमें मिलीहुई चिकित्साको करै ।। १४ ॥
कृमिजे शोणितं नस्यं तेन मूर्च्छन्ति जन्तवः॥ मत्ताः शोणितगन्धेन निर्यान्ति प्राणवक्रयोः ॥ १५॥
सुतीक्ष्णनस्यधूमाभ्यां कुर्यान्निर्हरणं ततः॥ कीडोंसे उपजे शिरोभितापमें रक्तका नस्य देवै, तिससे कीडे मच्छितहोतेहैं, और रक्तकी गंधसे उन्मत्तहुये कीडे नासिकाके और मुखके द्वारा निकसते हैं ॥ १५ ॥ सुंदर तीक्ष्ण नस्य और तीक्ष्ण धूमसे तिन कीडोंको निकासै ॥
विडङ्गस्वर्जिकादन्तीहिंगुगोमूत्रसाधितम् ॥ १६ ॥
कटुनिम्वेंगुदीपीलुतैलं नस्यं पृथक्पृथक् ॥ और वायविडंग साजी जमालगोटेकी जड हींग गोमूत्रमें साधितकिया ॥ १६॥ कडुआतेल नींबकातेल इंगुदीतेल पीलुतेलका पृथक् नस्य हितहै ।।
अजामूत्रद्रुतं नस्य कृमिजित्कृमिजित्परम् ॥ १७॥ और बकरेके मूत्रमें आलोडित किया वायविडंग नस्यके द्वारा कीडोंको निश्चय जीतताहै ॥१॥
पूतिमत्स्ययुतैः कुर्यादमं नावनभेषजैः॥ दुर्गन्धित मछलियोंसे संयुक्त किये नस्यके द्रव्यों करके धूमको करै ।।
कृमिभिः पीतरक्तत्वाद्रक्तमत्र न निर्हरेत् ॥१८॥ और कीडोंसे पातरक्तता होजानेसे रक्तको नहीं निकासे ॥ १८ ॥
वाताभितापविहितः कम्पे दाहाद्विना क्रमः॥ कंपमें दाहके विना वाताभितापमें कहा क्रम हितहै ॥
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