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( ९०४)
अष्टाङ्गहृदये
क्षीरावशिष्टं तच्छीतं मथित्वा सारमाहरेत् ॥ ततो मधुरकैः सिद्धं नस्यं तत्पूजितं हविः ॥ ५ ॥
और कुटेहुये वरणादिगणमें आधे पानीसे संयुक्त किये दूधको पावै॥ ४ ॥जब दूधमात्र शेषर है तब शीतलकर मथके घृतको निकासै, पीछे मधुर द्रव्योंसे पकाया हुआ वह घृत श्रेष्ठ नस्य कहा है || ९ || वर्गेऽत्र पक्कं क्षीरे च पेयं सर्पिः सशर्करम् ॥
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इसी वरणादिगणमें और दूधमें पका हुआ घृत खांडसे संयुक्त करके पीना योग्य है | कार्पासमज्जात्वङ्मुस्तासुन कोरकाणि च ॥ ६॥ नस्यमुष्णाम्बुपिष्टानि सर्वमूर्द्धरुजापहम् ॥
और कपास की मज्जा तज नागरमोथा चमेली के फूलोंकी कली ॥ ६ ॥ गरमपानी से इन्होंको पीस नस्य लेवे तो शिरकी सब प्रकारकी पीडा दूर होती है ॥
शर्करामतं घृतं पित्तासृगन्वये ॥ ७ ॥ प्रलेपः सघृतैः कुष्ठकुटिलोत्पलचन्दनैः ॥ वातोद्रेकभयाद्रक्तं न चास्मिन्नवसेचयेत् ॥ ८ ॥ इत्यशान्तौ चले दाहः कफे चोष्णं यथोदितम् ॥
खांड और केसरमें पकाया घृत पित्त और रक्तसे उपजे शिरोरोग में हित है || ७ || और कूठ तगर नीला कमल चंदन इन्हों के कल्कोंमें घृत मिला लेप करनाभी हित है और इसरोगमें वातकी अधिकताके भयसे रक्तको नहीं निकासे ॥ ८ ॥ जो ऐसे शांत नहीं होवे तो वायुमें दाह इष्ट है और कफ यथायोग्य गरमपदार्थ हित है |
अर्द्धावभेदप्येषा यथादोषान्वया क्रिया ॥ ९ ॥
और अर्धावभेदक रोगमें भी दोषकी रोगके अनुसार यथायोग्य क्रिया करनी हित है ॥ ९ ॥ शिरीषवीजापामार्गमूलं नस्यं विडान्वितम् ॥ स्थिरारसो वा लेपे तु प्रपुन्नाटोऽम्लकल्कितः ॥ १० ॥
शिरस के बीज, ऊंगाकी जड, मनियारी नमक, इन्होंका नस्य अथवा शालपर्णी के रसका नस्य, अथवा कांजी में पिसेहुये पुंआडके बीजोंका लेप ये हितहै ॥ १० ॥
सूर्यावर्ते तु तस्मिंस्तु शिरयापहरेदसृक् ॥
सूर्यावर्त में यही चिकित्सा है परंतु सिराके रक्तको निकासे ॥
शिरोऽभितापे पित्तोत्थे स्निग्धस्य व्यधयेच्छि राम्॥११॥ शीताशिरामुखालेपसे कशोधनवस्तयः ॥ जीवनीयते क्षीरसर्पिषी पाननस्ययोः ॥ १२ ॥
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