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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषांटीकासमेतम् । (८९३) मूत्रशृतं हठक्षारं पक्त्वा कोद्रवभुक्पिबेत् ॥७० ॥ साधितं वत्सकाद्यैर्वा तैलं सपटुपञ्चकैः ।। कफनान्धूमवमननावनादीश्च शीलयेत् ॥७१॥ और सेवालके खारको गोमूत्रमें पका कोदुका भोजन करताहुआ मनुष्य पावै ॥ ७० ॥ वत्सकादि गणके औषधोंसे और पांचों नमकोंकरके सिद्धकिया तेल हितहै और कफको नाशनेवाले धूम वमन नस्य आदिका अभ्यासकरै ।। ७१ ॥ मेदोभवे शिरां विध्येत्कफघ्नं च विधिं भजेत् ॥ असनादिरजश्चैनं प्रातर्मूत्रेण पाययेत् ॥ ७२ ॥ मेदसे उपजे गलगंडमें शिराको वधि और कफको नाशनेवाली विधिकरै और असनादि गणके चूर्णको गोमूत्रके संग प्रभातमें पान करावै ॥ ७२ ॥ अशान्तौ पाटयित्वा च सर्वान्व्रणवदाचरेत् ॥ और नहीं शांति होनेमें सब गलगंडोंको घावकी तरह आचरितकरै । मुखपाकेषु सक्षौद्राः प्रयोज्या मुखधावनाः॥७३ ॥ कथितास्त्रिफलापाठामृद्वीकाजातिपल्लवाः॥ निष्ठेव्या भक्षयित्वा वा कुठेरादिगणोऽथ वा ॥७४॥ और मुखपाकोंमें शहदसे संयुक्त किये मुखको धावन करनेवाले काथ प्रयुक्त करने योग्यहैं।॥७३॥ त्रिफला पाठा मुनक्कादाख चमेलीके पत्ते इन्होंको भक्षण करके थूकतारहै अथवा कुठेरादि गणके औषधोंको भक्षणकरके थूकतारहै ।। ७४ ॥ मुखपाकेनिलात्कृष्णापडेलाःप्रतिसारणम् ॥ तैलं वातहरैः सिद्धं हितं कवलनस्ययोः ॥७५॥ वायुसे उपजे मुखपाकमें पीपल नमक इलायची इन्होंकरके प्रतिसारण हितहै और वातको हरनेवाले औषधों में सिद्धकिया तेल कवलमें और नस्यमें हितहै ॥ ७९ ॥ पित्तास्त्रे रक्तपित्तनः कफन्नश्च कफे विधिः॥ पित्तके और रक्तके मुखपाकमें रक्तपित्तको नाशनेवाली विधि हितहै और कफसे उपजे मुखपाकमें कफको नाशनेवाली विधि हितहै ॥ लिखेच्छाखादिपत्रैश्च पिटिकाः कठिनाः स्थिराः॥ ७६ ।। और कठिन तथा स्थिर फुनसियां होवें तो शाकादि पत्रोंकरके लेखितकरै ।। ७६ ॥ यथादोषोदयं कुर्यात्सन्निपाते चिकित्सितम् ॥ सन्निपातसे उपजे मुखपाकमें दोषके उदयके अनुसार चिकित्साकरै ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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