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( ८९२)
अष्टाङ्गहृदये
घर धूम सहित कटुक द्रव्योंसे कफकी रोहिणीको प्रतिसारित करे और इन बक्ष्यमाण ऊंगा आदि औषधोंके कल्क में साधितकिया तेल नस्यमें और गंडूषों में हित है ॥ ६२ ॥ ऊंगा त्रिफला -श्वेत अपराजिता जमालगोटाकी जड बायविडंग सेंधानमक से युक्तकर ॥
तद्वच्च
वृन्दशालूकतुण्डकेरीगिलायुषु ॥ ६३ ॥
और यही तेल वृंद शालूक तुंडकेरी गिलायुमें श्रेष्ठहै ॥ ६३ ॥ विद्रधीस्राविते श्रेष्ठा रोचनातार्क्ष्यगैरिकैः ॥ सरोधपटुपत्तङ्गकणैर्गण्डूषघर्षणे ॥ ६४ ॥
शस्त्रकरके स्त्रावितकरी विद्रधीमें त्रिफला वंशलोचन रसोत गेरू लोध लालचंदन पीपल इन्हों· करके कुले और घर्षण करना उचित है ॥ ६४ ॥
गलगण्डः पवनजः स्विन्नो निस्रुतशोणितः ॥ तिलैवजैश्च लट्ठोमाप्रियालशणसम्भवैः ॥ ६५ ॥ उपानाह्यो त्रणे रूढे प्रलेप्यश्च पुनः पुनः ॥ शितिकतर्कारीगजकृष्णापुनर्नवैः ॥ ६६ ॥ मृतार्कमूलैश्च पुष्पैश्च करहाटजैः ॥ एकैषिकान्वितैः पिष्टैः सुरया काञ्जिकेन वा ॥ ६७॥
बातके गलगंडको स्वेदितकर पीछे रक्तको निकास पीछे तिल करंजुवाके बीज जवास के बीज चिरोंजी शणके बीजा इन्हों करके ॥ ६५ ॥ उपलेपित करना योग्य है और अंकुरित हुये घाव में बारंबार लेपको करवाये और सहोंजना हींगणवेट अरनी गजपीपल सांठी ॥ ६६ ॥ कालादाना गिलोय आँककी जड अकरकराके फूल निशोत इन्होंको मदिराकरके अथवा कांजीकरके पीस बारंबार लेपकरै ॥ ६७॥ गुडूचीनिम्बकुटजहंसपादीबलाद्वयैः ॥
साधितं पाययेत्तैलं सकृष्णादेवदारुभिः ॥ ६८ ॥
गिलोय नौब कूडा हंसपादी दोनों खरैहटी पीपल देवदार इन्होंसे साधितकिये तेलका पान - करवावै ॥ ६८ ॥
कर्त्तव्यं कफजेऽप्येतत्स्वेदविम्लापने त्वति ॥ लेपोजगन्धातिविषाविशल्यासविषाणिकाः ॥ ६९ ॥
गुआलाबुशुकाहाश्च पलाशक्षारकल्किताः ॥
कफसे उपजे इसरोगमें यही कर्म करना योग्य है, और स्वेद तथा मर्दन अत्यंत करना चाहिये, • और तुलसी अतीस और कलहारी मेढासिंगी ॥ ६९ ॥ चिरमठी तूंची क्षुद्रमोथा केसूका खार इन्होंके कल्कका लेप हित है ||
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