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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । और इस कालमें मदिराका पान न करै और जो नहीं सरै तो स्वल्प मदिराको पीवै, अथवा बहुतसे पानीकरके मिलीहुई मदिराको पीवै; जो इस प्रकारसे दूसरी तरह मदिराको पीवै तो शोजा-शिथिलता-दाह-मोहकी उत्पत्ति होती है ॥ २९ ॥
कुन्देन्दुधवलं शालिमश्नीयाजांगलैःपलैः ॥
पिबेद्रसं नातिघनं रसाला रागखाण्डवौ ॥३०॥ कुंदनामक पुष्प और चंद्रमाके समान सफेद रंगवाले चांवलोंको जांगलदेशका मांससंग खावै और अतिघन अर्थात् अतिकरडे रसको अर्थात् मांसके रसको नहीं पीवै और रसाल रागखांडवको पीव गुड दाडिमसे युक्त रागखांडव कहलाता है ॥ ३० ॥
पानकं पञ्चसारं वा नवमृद्भाजनस्थितम् ॥
मोचचोचदलैर्युक्तं साम्लं मृन्मयशुक्तिभिः॥३१ ॥ पन्ना-पंचसार इन दोनोंको नवीन माटीके पात्रमें घोलकर पीवै. और केला तथा पनसके पत्तोंकरके संयुक्त और खट्टे रससे संयुक्त अर्थात् इमली और खांड मिला करके पीछे माटीकी सीपियोंकरके पीचे दाख महुआ खजूर काश्मरी यह बराबरले कपूरसे सुगंधित जलके साथ पीवे यह पंचसारहै ।। ३१ ॥
पाटलावासितं चाम्भः सकर्पूरं सुशीतलम् ॥
शशांककिरणान्भक्ष्यान्रजन्यां भक्षयन्पिबेत् ॥ ३२॥ पाटला पुष्पोंकरके सुगंधित किया और अच्छी तरह शीतल और कपूरसे संयुक्त ऐसे पानीकोभी माटीकी सीपियोंके द्वारा पीवै. ग्रंथान्तरमें लिखा है कूट मोथा उशीर नेत्रवाला इन्है कूटकर खैरके अंगारोंमें पाचितकर सहकारके रसस वासितकर चंपक कमल नेत्रवाला पद्म कुंद डालकर उससे जलको सुगंधित करे पीछ कपूर के समान शीतलरूपी भक्ष्य पदार्थोंको भक्षित करताहुआ मनुष्य॥३२॥
ससितं माहिषं क्षीरं चन्द्रनक्षत्रशीतलम् ॥
अभ्रंकषमहाशालतालरुद्धोष्णरश्मिषु ॥ ३३ ॥ रात्रीमें स्थापित और मिश्रीकरके संयुक्त और चंद्रमा तथा नक्षत्रोंकरके शीतल ऐसे भैसके दूधको पीवै पीछे आकाशके समान ऊंचे और बड़े ऐसे जो शाल और ताडवृक्ष तिन्हों करके रोकी हुई है सूर्यके किरण जिसमें ऐसे ॥ ३३ ॥
वनेषु माधवीश्लिष्टद्राक्षास्तबकशालिषु॥
सुगन्धिहिमपानीयसिच्यमानपटालिके ॥३४॥ और माधवीसंज्ञक बेलोंकरके मिश्रित तथा दाखोंके गुच्छे और शालवृक्षों करके संयुक्त बन अर्थात् बगीचमें सुगंधित और शीतल पानी करके सिच्यमानहुये वस्त्रोंकी पंक्तियोंसे संयुक्त ३४॥
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