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(८६४)
अष्टाङ्गहृदयेउन्मन्थेऽभ्यंजनं तैलं गोधाकर्कवसान्वितम् ॥ तालपत्राश्वगन्धार्कबाकुचीतिलसैन्धवैः ॥४५॥
सुरसालाङ्गलीभ्याञ्च सिद्धं तीक्ष्णञ्च नावनम् ॥ उन्मथ रोगमें गोधा और ककेरेकी वसासे अन्वितकिया और ताडका पत्ता आसगंध आक बावची तिल सेंधानमक इन्हों करके सिद्धकिया तेल मालिशमें हितहै ॥ ४५ ॥ तुलसी और कलहारीसे सिद्धकिया तेल तीक्ष्णनस्यरूप हितहै ॥
दुर्विद्धेऽश्मन्तजम्ब्वाम्रपत्रकाथेन सेचितम् ॥ ४६॥ तैलेन पाली स्वभ्यक्तां सुश्लक्ष्णैरवचूर्णयेत् ॥ चूर्णैर्मधुकमञ्जिष्ठाप्रपुण्ड्राह्वनिशोद्भवैः ॥ ४७ ॥
लाक्षाविडङ्गसिद्धञ्च तैलमभ्यञ्जने हितम् ॥ और बुरीतरह विद्धहुए कानमें आपटा जामनके पत्ते आमके पत्ते इन्होंके काथ करके सेचित करी ॥ ४६ ॥ और तेलसे अभ्यक्तकरी पालीको महीन पिसेहुए मुलहटी मजीठ पौंडा हलासे चूर्णोसे अवचूर्णित करै ॥ ४७ ॥ लाख और वायविडंगमें सिद्धकिया तेल मालिशमें हितहै ।।
स्विन्नां गोमयजैः पिण्डैर्बहुशः परिलहिकाम् ॥४८॥ विडङ्गसारैरालिम्पेदुरभ्रीमूत्रकल्कितैः॥ कौटजेंगुदकारञ्जवीजशम्याक. वल्कलैः ॥ ४९ ॥ अथवाभ्यंजने तैर्वा कटुतैलं विपाचयेत् ॥ सनिम्बपत्रमरिचमदनलंहिकात्रणे ॥ ५० ॥ गोबरके पिंडोंकरके बतबार स्वेदितकरी परिलेहिकाको ॥ ४८ ॥ भेडके मूत्रमें कल्कितकिये. विडंगसार इन्द्रजव इंगुदी करंजुआके बीज अमलतासकी छालसे लेपितकरै ॥ ५९ ॥ अथवा इन्हीं औषधोंके कल्कमें कडुवे तेलको पकावै, अथवा लेहिकाके घावमें नींबके पत्ते मिरच मैनफल इन्होंकरके कडुवे तेलको मालिशके भर्थ पकावै ॥ ५० ॥
छिन्नन्तु कर्णं शुद्धस्य वन्यमालोच्य यौगिकम् ॥
शुद्धास्त्रं लागयेल्लग्ने सद्यश्छिन्ने विशोधनम् ॥५१॥ . शुद्ध मनुष्यके शुद्धरक्तवाले छिन्नहुए कानको योगिकबंधको देखके लागित करै और लगेहुए, कानमें तथा तत्काल कटेहुए कानमें विशेष करके शोधन हितहै ॥ ११ ॥
अथ ग्रथित्वा केशान्तं कृत्वा छेदनलेखनम् ॥ निवेश्य सन्धि सुषमं न निम्नं न समुन्नतम् ॥ ५२ ॥ अभ्यज्य मधुसर्पिा पिचुप्लोतावगुण्ठितम् ॥ सूत्रेणागाढशिथिलं वद्धा चूर्णैरवा
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