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उत्तरस्थानं भाषार्टीकासमेतम् । (८६३) कर्णार्शमें और कर्णार्बुदमें नासिकाकी तरह औषधको करै, और कची कर्णविदारिका दोषके उदयके अनुसार कानकी विद्रधीके समान साधित करनी योग्यहै ॥ ३७॥
पालीशोषेऽनिलश्रोत्रशूलवन्नस्यलेपनम् ॥ स्वेदं च कुर्य्यात्स्विन्नाञ्च पालीमुद्वर्त्तयेत्तिलैः ॥ ३८॥ प्रियालबीजयष्टयाह्वहयगन्धायवान्वितैः॥
ततः पुष्टिकरैः स्नेहैरभ्यङ्गं नित्यमाचरेत् ॥ ३९॥ पालीशोषमें वातसे उपजे कर्णशूलकी तरह नस्य लेप स्वेदको करै, और स्विन्नहुई पालीको तिलोंकरके उद्वर्तन करै ॥ ३८ ॥ चिरोंजी मुलहटी आसगंध जव इन्होंसे संयुक्त और पुष्टिके करनेवाले स्नेहोंसे नित्यप्रति मालिशको करै ॥ ३९ ॥
शतावरीवाजिगन्धापयस्यैरण्डजीवकैः ॥
तैलं विपक्कं सक्षीरं पालीनां पुष्टिकृत्परम् ॥ ४० ॥ शतावरी आसगंध दूधी अरंड जीवक दूध इन्होंमें पक्ककिया तेल पालियोंको अतिशय करके पुष्ट करताहै ॥ ४० ॥
कल्केन जीवनयेन तैलं पयसि पाचितम् ॥
आनूपमांसक्काथे च पालीपोषणवर्द्धनम् ॥४१॥ जीवनीयगणके कल्कसे और अनूपदेशके मांसोंके काथमें और दूधमें पकायाहुआ तेल पालीको पोषताहै, और बढाताहै ॥ ४ १ ॥
पाली छित्त्वातिसंक्षीणां शेषां सन्धाय पोषयेत् ॥ अत्यंत क्षीणहुई पालीको छेदितकर और शेषरहीको संधितकर पीछे पोषितकरै ॥
याप्यैवं तन्त्रिकाख्यापि परिपोटेऽप्ययं विधिः॥४२॥ और कष्टसाध्य तंत्रिकारोगभी ऐसेही साधितकरना योग्यहै, परिपोटमेंभी यही विधि है ॥४२॥
उत्पाते शीतलैर्लेपोजलोकोहृतशोणिते ॥ उत्पातमें प्रथम जोकोंकरके रक्तको निकास पीछे शीतल औषधोंकरके लेपित करना ।।
जम्ब्बाम्रपल्लवबलायष्टीरोध्रतिलोत्पलैः ॥४३॥ सधान्याम्लैः समञ्जिष्ठैः सकदम्बैः ससारिवैः ॥ सिद्धमभ्यंजनं तैलं विसर्पोक्तघृतानि च ॥४४॥ और जांमन आमके पत्ते खरेहटी मुलहटी लोध तिल नीलाकमल||४३॥ चावलोंकी कांजी मजीठ कदंब अनंतमूल इन्होंमें सिद्धकिया तेल मालिशमें हितहै और विसर्परोगमें कहेहुए घृत हितहैं ४४
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