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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८६५) किरन् ॥ ५३॥ शोणितस्थापनैर्ऋण्यमाचारं चादिशेत्ततः ॥
सप्ताहादामतैलाक्तं शनैरपनयत्पिचुम् ॥ ५४॥ केशोतक प्रथितकर छेदन और लेखनको कर पीछे न नीची और न ऊंची समान रूप संधिको स्थापितकर ॥ ५२ ॥ शहद और घृतसे अभ्यक्त करके पीछे रूईके फोहेसे अवगुंठित करना न करडे और न शिथिल सूत्रसे बांध पीछे चूर्णों से अवचूर्णित करै ॥ १३ ॥ परंतु रक्तको स्थापित करनेवाले चूर्णोकरके चूर्णितकरे पीछे व्रणमें हितरूप आचारको सबै पीछे सात दिनों में कच्चे तेलसे भिगोयेहुए तिस रूईके फोहेको हौले हौले दूर करे ॥ १४ ॥
सुरूढं जातरोमाणं श्लिष्टसन्धिसमस्थिरम् ॥
सुवणिं सुरागश्च शनैः कर्ण विवर्द्धयेत् ॥५५॥ पीछे अच्छीतरह अंकुरितहुए और उपजेहुए रोमोंवाले और मिलीहुई सन्धियोंवाले और सम स्थिर सुंदर वर्मवाले रागवाले कानको होले होले बढावै ॥ १५ ॥
जलशकः स्वयंगुप्ता रजन्यौ बृहतीद्वयम् ॥ अश्वगन्धाबलाहस्तिपिप्पलीगौरसर्षपाः ॥५६॥ मूलं कोशातकाश्वघ्नरूपिकासतपर्णजम्॥चुच्छुन्दरी कालमृता गृहं मधुकरीकृतम्॥५७॥जन्तुका जलजन्मा च तथा शाबरकन्दकम् ॥ एभिःकल्कैःखरंपक्कं सतैलं माहिषं घृतम्॥५८॥ हस्त्यश्वमूत्रेण परमभ्यंगात्कर्णवर्द्धनम् ॥ शिवाल कौंच हलदी दारुहलदी दोनों कटेहली असगंध खरेहटी गजपीपल शरसों ॥५६॥ कोशातक कनेर आक शातला इन्होंकी जड और काल करके मरीहुई चकचुंधर शहदको करनेवाली माखीका घर॥५॥पेचापक्षी जोंक लहसनके कल्कोंकरके तीक्ष्ण पकेहुए तेलसे संयक्त भैसका वृत।।५८॥हाथी और घोडेके मूत्रसे सिद्ध किया यह तेल घृत सहित मालिशकरनेसे कानको बढाताहै।।
अथ कुर्य्याद्वयस्थस्य छिन्नां शुद्धस्य नासिकाम् ॥५९॥ छिद्यानासासमं पत्रं तत्तुल्यं च कपोलतः॥त्वङ्मांसं नासिकासन्नेर
क्षस्तत्तनुतां नयेत् ॥६०॥ सीव्येद्गण्डं ततः सूच्या सेविन्यापिचुयुक्तया ॥ नासाच्छेदे च लिखिते परीवोपरि त्वचम् ॥ ॥६१॥ कपोलबन्धं सन्दध्यात्सीव्येन्नासां च यत्नतः॥नाडीभ्यामुक्षिपेदन्तः सुखोच्छ्वासप्रवृत्तये ॥६२॥आमतैलेन सिक्त्वा तु पतङ्गमधुकाञ्जनैः॥शोणितस्थापनैश्चान्यैःसुश्लक्ष्णैरवचूर्णयेत् ॥६३॥ ततो मधुघृताभ्यक्तं बद्धाचारिकमादिशेत्॥
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