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(८५४)
अष्टाङ्गहृदयेमूत्रआदि वेगोंका रोकना, अजीर्ण भोजनमें भोजन शोक क्रोध दिनका शयन रात्रिका जागना इन्होंको व ॥६५॥ दाह करनेवाला और विष्टंभ करनेवाला भोजन और औषधकोभी व॥६६॥
द्वे पादमध्ये पृथुसन्निवेशे शिरे गते ते बहुधा च नेत्रे॥ ताम्रक्षणोद्वर्तनलेपनादीन्पादप्रयुक्तान्नयनं नयन्ति॥६॥ मलोष्णसंघटनपीडनायैस्ता दूषयन्ते नयनानि दुष्टाः॥
भजेत्सदा दृष्टिहितानि तस्मादुपानदभ्यञ्जनधावनानि॥६८॥ पैरोंके मध्यमें पृथुरूप दो नाडीहैं, और वे बहुत प्रकारसे नेत्रमें प्राप्त होरहीहै, वे नाडी पैरोंमें प्रयुक्तकिये मालिश उवटना लेपन आदिको नेत्रमें प्रयुक्त करतीहैं ॥ ६७ ॥ मैल गरमाई संघटन पीडा आदिसे दुष्टहुई वे नाडी नेत्रोंको दूषित करतीहै, इसकारणसे सबकालमें दृष्टिमें हित करनेवाले जूती जोडा मालिश धावन इन सबोंको मनुष्य सेवतारहै ॥ ६८ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
सप्तदशोऽध्यायः।
अथातः कर्णरोगविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर कर्णरोगविज्ञानीयनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । प्रतिश्यायजलक्रीडाकर्णकण्डूयनैर्मरुत्॥मिथ्यायोगेन शब्दस्य कुपितोऽन्यैश्च कोपनैः॥१॥ प्राप्य श्रोत्रशिराः कुर्य्याच्छूलस्रोतसि वेगवत॥अर्धावभेदकं स्तम्भं शिशिरानभिनन्दनम् ॥२॥ चिराच्च पाकं पक्कं तु लसीकामल्पशः स्रवेत्॥श्रोत्रं शून्यमकस्माच स्यात्सञ्चारविचारवत् ॥ ३॥ पीनस जलक्रीडा कर्णका खुजाना इन्होंकरके और शब्दके मिथ्याभियोगकरके और कोपनरूप अन्य निदानोंकरके कुपितहुआ वायु ॥ १॥ कानकी शिराओंमें प्राप्तहो कानके छिद्रमें वेगवाले शूलको करताहै तथा अर्धावभेदक शिरके रोगको तथा कानके स्तंभको करताहै तथा शीतलपदार्थ करके आनंदके अभावको उपजाताहै ॥ २॥ और चिरकालसे पाकको करताहै और पकाहुआ कान थोडी शेडी लसिकाको झिराताहै और आपही आप कान शून्य होजाताहै संचार और विचारवाला कान होजाताहै ॥ ३ ॥
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