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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८५५) शूलं पित्तात्सदाहोषा शीतेच्छा श्वय) ज्वरम् ॥ आशुपाकं प्रपक्वं च सपीतलसिकास्नुतिः॥४॥
सा लसीका स्पृशेद्यद्यत्तत्तत्पाकमुपैति च ॥ पित्तसे शूल और दाह और संताप और शीतलपदार्थकी इच्छा और शोजा ज्वर और तत्काल पाकको उपजाताहै, और प्रकर्षकरके पकाहुआ पीलीलासकाको झिराताहै ॥ ४ ॥ वह लसिका जिस जिस अंगका स्पर्श करतीहै वही वही अंग पाकको प्राप्त होताहै ॥
कफाच्छिरोहनुग्रीवागौरवं मन्दता रुजः ॥ ५॥
कण्डूः श्वयथुरुष्णेच्छा पाकाच्छेतघना सुतिः॥ और कफसे शिर ठोडी ग्रीवाका भारीपन और पीडाकी अल्पता ॥ ५॥ और खाज शोजा गरम पदार्थकी इच्छा और पाकसे श्वेत और करडा स्राव होताहै ॥
करोति श्रवणे शूलमभिघातादि दूषितम् ॥६॥
रक्तं पित्तसमानार्ति किश्चिद्वाधिकलक्षणम् ॥ और अभिघातआदिसे दूषितहुआ रक्त कानमें शूलको करताहै ॥ ६ ॥ परंतु पित्तके समान पीडावाला और कछुकअधिक लक्षणोंवाला रक्त होताहै ।।
शूलं समुदितैर्दोषैः सशोफज्वरतीवरुक् ॥ ७॥ पर्यायादुष्णशीतेच्छं जायते श्रुतिजाड्यवत् ॥
पक्कं सितासितारक्तघनपूयप्रवाहि च ॥८॥ और सन्निपात दोपोंकरके सोजा ज्वर तीव्र पीडासे संयुक्त शूल उपजताहै ॥ ७ ॥ पर्यायकरके उष्ण और शीतकी इच्छावाला और जडपनेसे संयुक्त और पक और सफेद काली रक्त रादको बहानेवाला कान होजाताहै ॥ ८ ॥
शब्दवाहिशिरासंस्थेशृणोति पवने मुहुः ।।
नादानकस्माद्विविधान्कर्णनादं वदन्ति तम् ॥९॥ शब्दको बहनेवाली शिरामें स्थितहुये वायुमें कारणके विना आपही आप अनेक प्रकारके शब्दोंको मनुष्य सुनताहै तिसको कर्णनाद रोग कहतेहैं ॥ ९ ॥
श्लेष्मणानुगतो वायु दो वा समुपेक्षितः॥
उच्चैः कृच्छाच्छ्रति कुर्य्याधिरत्वं क्रमेण च ॥१०॥ कफकरके अनुगतहुआ वायु अथवा नहीं चिकित्सित किया कर्णनाद रोग कष्टसे ऊंचा सुननेको करता है और क्रमकरके बधिरपनेको करताहै ॥ १० ॥
वातेन शोषितः श्लेष्मा स्रोतो लिम्पेत्ततो भवेत् ॥ रुग्गौरवं पिधानं च स प्रतीनाहसंज्ञितः ॥११॥
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