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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८५३) हरताल और सुरमा ले और इन दोनोंके समान तांबेका सूक्ष्म चूर्ण ले एक सलाईकरके सेवितकिया यह चूर्ण पिल्लरोगोंमें रोमोंको उपजाताहै ॥ १७ ॥
लाक्षानिर्गुण्डीगदारिसेन श्रेष्ठं कार्पासंभावितं सप्तकृत्वः। दीपः प्रज्वाल्यः सर्पिषा तत्समुत्था श्रेष्ठा पिल्लानां रोपणार्थे मषी सा ॥ ५८॥
लाख संभालू भंगरा दारुहलदीके रससे सातवार भावितकरी श्रेष्ठ रूईसे घृतके संग दीपक प्रचलित करना योग्यहै, तिससे उपजी श्याही पिल्लरोगके रोपण करनेके अर्थ श्रेष्ठहै ॥ १८ ॥
वावलेखं बहुशस्तद्वच्छोणितमोक्षणम् ॥ पुनः पुनर्विरेकञ्च नित्यमाश्चोतनांजनम् ॥ ५९॥ नावनं धूमपानं च पिल्लरोगातुरो भजेत् ॥
पूयालसे त्वशान्तेन्तर्दाहः सूक्ष्मशलाकया ॥ ६०॥ पिल्लरोगवाला वर्मके अवलेखनको और रक्तके निकासनेको और बारबार जुलाबको नित्यप्रति आश्चोतन और अंजनको ॥ ५९॥ नस्यको और धूमांके पीनेको सेवै और नहीं शांतहुये प्यालसरोगमें सूक्ष्म सलाईकरके भीतरको दाह करना हितहै ।। ६० ॥
चतुर्नवतिरित्यक्ष्णोर्हेतुलक्षणसाधनैः॥ परस्परमसङ्कीर्णाः कात्स्येन गदिता गदा॥६१॥ सर्वदा च निषेवेत स्वस्थोऽपि नयनप्रियः॥ पुराणयवगोधूमशालिषष्टिककोद्रवान् ॥ ६२॥ मुगादीन्कफपित्तघ्नान्भूरिसर्पिःपरिप्लुतान् ॥शाकं चैवंविधं मांसं जाङ्गलं दाडिमं सिताम् ॥६३ ॥ सैन्धवं त्रिफलां द्राक्षां वारिपाने च नाभसम्॥आतपत्रं पदत्राणं विधिवदोषशोधनम्॥६४॥ हेतुलक्षण साधनसे आपसमें असंकीर्ण और संख्यामें ९४ नेत्रों के रोग संपूर्णता करके कहे ॥६१ ॥ नेत्रोंसे प्यार करनेवाला स्वस्थ मनुष्यभी सबकालमें पुराणा जब गेहूं शालिचावल शांठिचावल कोदूं ॥ ६२ ॥ मूंग आदि कफ और पित्तको नाशनेवाले और बहुतसे और घृतसे युक्त और ऐसेही प्रकारवाले शाक और जांगलदेशका मांस और अनार मिसरी ॥ ६३ ॥ सेंधानमक त्रिफला दाख और पान करनेमें आकाशका पानी छत्री जूती जोडा आदि और विधिपूर्वक जुलाबको सेवै ॥ ६४ ॥
वर्जयेद्वेगसंरोधमजीर्णाध्यशनानि च ॥ शोकक्रोधदिवास्वप्ननिशाजागरणानि च ॥६५॥ विदाहि विष्टम्भकरं यच्चेहाहारभेषजम् ॥ ६६ ॥
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