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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
कफोपदिग्धमसितं सितप्रक्लेदरागवत् ॥ २० ॥ दाहो दर्शनसंरोधो वेदनाश्चानवस्थिताः ॥
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और अल्प शोजमें अल्प शोजा होता है, और अन्य लक्षणोंसे अक्षिपाकात्ययरोग होता है ॥ १९ ॥ इस अक्षिपाकात्ययमें शोजा संरंभ कलुषरूप आंशुओं का आना और कफसे लेपितहुआ कृष्णभाग प्रक्केद और राग से संयुक्तहुआ श्वेतभाग || २० || दाह देखनेका रोध और चलतरूप पीडा उपजती है ॥ अन्नसारोऽल्पतां नीतः पित्तरक्तोल्बणैर्मलैः ॥ २१ ॥ शिराभित्रमारूढः करोति श्यावलोहितम् ॥ सशोफदाहपाकाथु भृशं चाविलदर्शनम् ॥ २२ ॥
पित्त और रक्तकी अधिकतावाले दोषोंकरके अम्लभावको प्राप्तहुआ अन्नका सार ॥ २१ ॥ नाडियों करके नेत्रमें आरूढहुआ धूम्र और लालरंगवाले और शोजा दाह आंशुपाक इन्होंके अत्यंतपनेसे संयुक्त और कलुष दर्शनवाले नेत्रको करता है ॥ २२ ॥
अम्लोषितोऽयमित्युक्ता गदाः षोडश सर्वगाः ॥ हताधिमन्थमेतेषु साक्षिपाकात्ययं त्यजेत् ॥ २३ ॥
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यह अम्लोषित रोगहै इसप्रकार से सर्वनेत्रमें प्राप्त होनेवाले १६ रोग कहे, इन्होंमें हतात्रिमंथ और अक्षिपाकात्ययको त्यागे ॥ २३ ॥
वातोद्भूतः पंचरात्रेण दृष्टिं सप्ताहेन श्लेष्मजातोऽधिमन्थः ॥ रक्तोत्पन्नो हन्ति तद्वत्रिरात्रान्मिथ्याचारात्पैत्तिकः सद्य एव ॥ २४ ॥
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वातसे उपजा अधिमंथ पांच रात्रिमें दृष्टिको नाशता है और कफसे उपजा अधिमंथ सात रात्रिमें दृष्टिको नाशता है, और रक्त से उपजा अधिमंथ तीन रात्रिमें दृष्टिको नाशता है और मिथ्या आचारसे पित्तका अधिमंथ तत्काल दृष्टिको नाशता है ॥ २४ ॥
इति
बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता भाषा टीकायामुत्तरस्थाने पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
पोडशोऽध्यायः ।
अथातः सर्वाक्षिरोगप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः । अब सर्वाक्षिरोगप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
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प्राग्रूप एव स्यन्देषु तीक्ष्णगण्डूषनावनम् ॥ कारयेदुपवासं च कोपादन्यत्र वातजात् ॥ १ ॥ अभिस्यंदोंके पूर्वरूपमें तीक्ष्णरूप गंडूष नस्य लंबनका रोगीको अभ्यास करावे परंतु वातसे उपजे कोप के विना ॥ १ ॥