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(८४६)
अष्टाङ्गहृदयेदाहोपदेहरागाश्रुशोफशान्त्यै विडालकम् ॥कुर्यात्सर्वत्र पत्र लामरिचस्वर्णगैरिकैः ॥२॥ सरसाजनयष्टयाह्वनतचन्दनसै न्धवैः ॥ सैन्धवं नागरं तायं भृष्टं मण्डेन सर्पिषः॥३॥वातजेघृतभृष्टं वा योज्यं शबरदेशजम्॥मांसीपद्मककांकोलीयष्टयाकैपित्तरक्तयोः॥४॥मनोह्वाफलिनीक्षौद्रैः कफे सर्वैस्तु सर्वजे॥ दाह लेप राग आंशु शोजाकी शांतिके अर्थ बिडालसंज्ञक लेपको सब प्रकारके अभिष्यंदोंमें करे, परंतु तेजपात इलायची मिरच सोना गेरू ॥२॥रसोत मुलहटी तरग चंदन सेंधानमक और घतके मंडकरके भुनेहुये सेंधानमक सूंठ लोध ॥ ३ ॥ अथवा वातके अभिस्यंदमें घृतमें भुनाहुआ लोध युक्त करना योग्यहै पित्त और रक्तके अभिस्यंदमें वालछड पनाख काकोली मुलहटी इन्होंकरके बिडालसंज्ञक लेपको करै ॥४॥ और कफके अभिष्यंदमें मनशिल कलहारी शहद इन्हों करके बिडालक करना योग्यहै और सन्निपातसे उपजे अभिस्यंदमें सब औषधोंकरके मिलाहुआ करना योग्यहै।।
सितमरिचभागमेकं चतुर्मनोहं द्विरष्टशाबरकम् ॥
संचूर्ण्य वस्त्रबद्धं प्रकुपितमात्रेऽवगुण्ठनं नेत्रे ॥ ५॥ सफेद मिरच अर्थात् सफेद सहोजनाके बीज एकभाग मनशिल चार भाग लोध १६ भाग इन्होंका चूर्ण बना वस्त्रमें बांध प्रकुपित हुये नेत्रमें अवगुंठन करना हितहै ॥ ५॥ आरण्याच्छगणरसे पटावबद्धाः सुस्विन्ना नखवितुषीकृताः कुलत्थाः॥ तच्चूर्णं सकृदवचूर्णनान्निशीथे नेत्राणां विधमति सद्य एव कोपम् ॥
गायके गोबरके रसमें भिगोयेहुये और वस्त्रमें बंधेहुये और स्वेदितकिये और नखोंके द्वारा तुषसे हीन बनकी कुलथीका चूर्ण बना एकहीवार अर्द्धरात्रमें अवचूर्णित करनेसे तत्काल नेत्रोंका कोप दूरहोताहै ॥ ६ ॥
घोषाभयातुत्थकयष्टिरोधैर्मूतीससूक्ष्मः श्लथवस्त्रबद्धैः॥ ताम्रस्थधान्याम्लनिमग्नमूर्तिरति जयत्यक्षणि नैकरूपाम् ॥७॥ कडवीतोरी, हरडै, नीलाथोथा, मुलहटी, लोधको कोमल वस्त्रमें बांध बनाई पोटलीको तांबाके पात्रमें स्थितहुये कांजीमें डवो नेत्रोंमें धारितकी यह पोटली अनेक प्रकारकी पीडाको जीततीहै ॥
षोडशभिः सलिलपलैः पलं तथैकं कटंकटेाः सिद्धम् ॥ सेकोऽष्टभागशिष्टः क्षौद्रयुतः सर्वदोषकुपिते नेत्रे ॥८॥
चौंसठतोले पानीमें ४ तोले दारुहलदीको मिला पकावै, जब आठ भाग शेष रहै तब शहद मिलावै यह सेक सब दोषों करके कुपितहुये नेत्रमें हितहै ॥ ८ ॥
वातपित्तकफसन्निपातजां नेत्रयोहुविधामपि व्यथाम् ॥ शीघ्रमेव जयति प्रयोजितः शिग्रुपल्लवरसः समाक्षिकः ॥९॥
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