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(८४४)
अष्टाङ्गहृदयेमन्थेऽक्षि ताम्रपर्यन्तमुत्पाटनसमानरुक ॥१३॥ रागेण बन्धूकनिभं ताम्यति स्पर्शनाक्षमम् ॥
असृङ् निमग्नारिष्टाभं कृष्णमग्न्याभदर्शनम् ॥ १४ ॥ और अधिमंथमें तांबा पर्यंत और उत्पातनके समान पीडासे संयुक्त नेत्र होजातहैं ।। १३ ॥ रागकरके दुपहरियाके फूलके समान कांतिवाले और तमितहुये और स्पर्शको नहीं सहनेवाले और रक्तमें निमग्नहुये नींबके सदृश कांतिवाले और कृष्णरूप और अग्निके समान दर्शनवाले नेत्र होजातेहैं ॥ १४ ॥
अधिमन्था यथास्वञ्च सर्वे स्यन्दाधिकव्यथाः ॥
शंखदन्तकपोलेषु कपाले चातिरुकराः॥१५॥ यथायोग्य अधिमंथ अभिस्यदोंसे अधिक पीडावाले होतेहैं, और कनपटी दांत खोपरी कपोलमें अत्यंत पीडाको करतेहैं ॥ १५ ॥
वातपित्तोत्तरं घर्षतोदभेदोपदेहवत् ॥ रूक्षदारुणवाक्षिकृच्छ्रोन्मीलनमीलनम् ॥१६॥
विकूर्णनं विशुष्कत्वं शीतेच्छा शूलपाकवत् ॥ वातपित्तकी अधिकतावाले नेत्र घर्ष चभका भेद लेपसे संयुक्त और रूखी तथा दारुण वर्म और नेत्रोंसे संयुक्त और कष्ट करके नेत्रका खोलना और मींचनासे संयुक्त ॥ १६ ॥ और संकुचित होनेवाले और विशेषकरके सूखतेहुये और शीतल पदार्थकी इच्छावाले शूल और पाकसे संयुक्त होतेहैं ॥
उक्तः शुष्काक्षिपाकोऽयं सशोफः स्यानिभिर्मलैः ॥ १७ ॥ सरक्तैस्तत्र शोफोऽतिरुग्दाहष्ठीवनादिमान् ॥ पक्कोदुम्बरसङ्काशं जायते शुक्लमण्डलम् ॥ १८ ॥
अश्रूष्णशीतविशदपिच्छिलाच्छघनं मुहुः ॥ यह शुष्काक्षिपाक रोग कहा और रक्तसे मिलेहुये तीन दोषोंकरके सशोफनामवाला रोग होताहे ॥ १७ ॥ तहां शोजा अत्यंत पीडा दाह थूकना इन्होंसे संयुक्त यह रोग होताहै, और पकेहुये गूलरके समान कांतिवाला शुक्लमंडल होजाताहै ॥ १८ ॥ और वारंवार गरम और बारंबार शीतल और विशद पिच्छिल पतला और करडा बारंबार आंशु होजाताहै ॥
अल्पशोफेऽल्पशोफस्तु पाकोऽन्यैर्लक्षणैस्तथा ॥ १९ ॥ अक्षिपाकात्यये शोफः संरम्भः कलुषाश्रुता ॥
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