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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८०३) कृच्छ्रोन्मीलरोगमें पुराने घृतको दाखोंके कल्कमें साधितकर मिसरीके सहित योजितकर, और स्निग्ध नस्य तथा धूम अंजनादिक कर्म करे ॥ १ ॥
कुम्भीकावर्ती लिखितं सैन्धवप्रतिसारितम् ॥
यष्टीधात्रीपटोलीनां क्वाथेन परिषेचयेत्॥२॥ और कुंभीकावर्त्मको वृद्धिपत्रादिकसे लिखे फिर सेंधानमकसे प्रतिसारणकर मुलहटी आंवला परवलके काथसे परिषेचनकरै ॥२॥
निवातेऽधिष्ठितस्याप्तैःशुद्धस्योत्तानशायिनः॥ बहिःकोष्णाम्बु तप्तेन स्वेदितं वर्त्म वाससा॥३॥निभुज्य बस्त्रान्तरितं वामागु ष्ठाङ्गुलीधृतम्॥न स्रंसते चलति वा वत्मैवं सर्वतस्ततः॥४॥मण्डलाग्रेण तत्तिर्याक्कृत्वा शस्त्रपदाङ्कितम॥लिखेत्तेनैव पत्रैर्वा शाकशेफालिजादिजैः॥५॥फेनेन तोयराशेर्वा पिचुना प्रमृजन्न सृक् ॥ स्थिते रक्ते सुलिखितं सक्षौद्रैः प्रतिसारयेत् ॥६॥ यस्वमुक्तैरनु च यत्प्रक्षाल्योष्णेन वारिणा॥धृतेनासिक्तमभ्यक्तं बनीयान्मधुसर्पिषा ॥७॥ ऊर्ध्वाधः कर्णयोर्दत्त्वा पिण्डी च यव सक्तुभिः॥ द्वितीयेऽहनि मुक्तस्य परिषेकं यथायथम् ॥८॥कुयाच्चतुर्थे नस्यादीन्मुश्चेदेवाह्नि पञ्चमे ॥
और वायुसे रहित स्थानमें अधिष्ठित आश्रय करायाहुआ वमनविरेचन आदिकरके शुद्ध कराया हुआ सूधा सुवायाहुआ पुरुषहो उसके वर्मको बाहिरसे गरमजलसे वस्त्रसे स्वेदित करै ।। ३ ॥
और कुटिल तरह अर्थात् टेढाकरके अंतरमें वस्त्रकरे, बाँवां अंगूठा और अंगुलीसे तिसवमको धारणकरे, और जो ऐसे करनेसे स्रवे नहीं और सब तरहसे नहीं चलायमानहोवे तो ॥ ४ ॥ तिसको तिरछाकरके मंडल के अप्रभागकरके शस्त्रसे अंकितकर तिसी शस्त्रकरके अथवा शाकआदि पत्रोंकरके तथा समुद्रझागकरके तिसको खुरचे ॥ ५ ॥ और हाथपै धरेहुये रूईके फोहेसे रुधिरको मसलता हुआ वैद्य अच्छीतरह खुरचेहुऐ वर्ममें रुविर स्थित रहा जानके शहद सहित सेंधानमक आदिकोंसे प्रतिसारणकरै ॥ ६ ॥ और गरमजलसे प्रक्षालनकर घृतसे चुपडकै फिर शहद
और घृतसे मालिस करदेवै ॥ ७ ॥ और जवोंके सत्तकी पिंडी बनाके कानोंके ऊपर नीचे देके बाँध देवै, फिर दूसरे दिन खुलेहुये वर्मको यथार्थ औषधसे सेचनकरै ॥ ८ ॥ और ऐसेही चौथे दिन खोलके नस्य आदिक कर्म कर, पीछे पांचवें दिन खोलदेवै कछु कर्म न करै ।।
समं नखनिभं शोफकण्डूघर्षाद्यपीडितम् ॥९॥ विद्यात्सुलिखितं वर्त्म लिखेद्भयो विपर्यये ॥
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