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(८०४)
अष्टाङ्गहृदयेऔर समानहो नखके समान कांतिवाला हो खाज घर्ष इत्यादिकोंसे पीडित हो ॥ ९ ॥ ऐसे वर्मको अच्छीतरह लिखाहुआ जाने और जो इससे विपरीत होवे तो फिर लिखै अर्थात् फिर खुरचे॥
रुक्पक्ष्मवर्त्मसदनं संसनादतिलेखनात् ॥१०॥ स्नेहस्वेदादिकस्तस्मिन्निष्टो वातहरः क्रमः॥ और पीडा वमसदन हो संसन हो ये रोग ज्यादे लिखनेसे होतेहैं ॥ १० ॥ तिसमें स्नेह स्वेदादिक वातनाशक क्रम करना हित कहाहै ॥
अभ्यज्य नवनीतेन श्वेतरोधं प्रलेपयेत्॥११॥एरण्डमलकल्केन पुटपाके पचेत्ततः॥स्विन्नं प्रक्षालितं शुष्कं चूर्णितं पोटली कृतम् ॥१२॥ स्त्रियाः क्षीरे छगल्या वा मृदितं नेत्रसेचनम्॥
और सफेदलोधके नूनी घृत लगाके फिर ॥ ११ ॥ अरंडकी जडके कल्कका लेपकरै पीछे तिसको पुटपाक विधिसे पकावे फिर पकेहुए तिसको प्रक्षालनकर चूर्णित बना पोटली बांधके ॥ १२ ॥ फिर स्त्रीके दूधमें अथवा वकरीके दूधमें मृदितकर नेत्रका सेचन करना हितहै ।
शालितण्दुलकल्केन लिप्तं तद्वत्परिष्कृतम् ॥ १३॥ कुर्य्यानेत्रेऽतिलिखिते मृदितं दधिमस्तुना ॥
केवलेनापि वा सेकं मस्तुना जाइलाशिनः॥ १४॥ और तैसेही लोधको घृतमें लेपितकर शालिसंज्ञक चावलोंके कल्ककरके लेपितकरै ॥ १३ ॥ फिर पुटपाकमें सिद्धकर दहीके मस्तुमें मृदितकर अतिलेखित नेत्रमें सेचनकरै अथवा जांगलदेशके जीवोंके मांसको खानेवाले पुरुषके अकेले दहीके मस्तुकरके सेंककरै ॥ १४ ॥
पिटिकां व्रीहिवत्रण भित्त्वा तु कठिनोन्नताम् ॥ निष्पीडयेदनुविधि परिशेषस्तु पूर्ववत् ॥ १५॥
लेखने भेदने चायं क्रमः सर्वत्र वर्त्मनि ॥ और कठिन तथा उन्नतपिडिकाको ब्रीहीसरीखे मुखवाले शस्त्रसे भेदनकर पश्चात् निष्पीडनकर फिर प्रलेप बंधन प्रक्षालन परिषेकआदि विधि पहलेहीकी समानकरे ॥ १५ ॥ सबही वर्मरोगमें लेखन भेदनमें यही क्रम करना चाहिये ॥
पित्तास्रोक्लिष्टयोः स्वादुस्कन्धसिद्धेन सर्पिषा ॥ १६ ॥ शिराविमोक्षः स्निग्धस्य त्रिवृच्छ्रेष्ठं विरेचनम्॥ लिखिते सुतरक्ते च वर्मनि क्षालनं हितम् ॥१७॥ यष्टीकषायः सेकस्तु क्षीरं चन्दनसाधितम्॥
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