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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(७९१)
और इन्हीं औषध माह से दोनों आदि पहली सात औषधोंको त्यागके अगली इक्कीश औषधों को जलमें पका पीछे तिस रसमें घृत और चौगुना प्रथम व्याईगौका दूध पकावे ॥ ३२ ॥ पीछे तिसमें शतावरी दोनों मेदा कौंच काकडासिंगी सूर्यमुखी इन सब औषधोंकरके युक्त यह महा कल्याणक नामबाला घृत सिद्ध होता है ॥ ३३ ॥ यह घृत धातुवों को बढाता है सन्निपातको नाशता है और पहले कहेहुये घृतसे अधिक गुणवाला है ||
जटिला पृतना केशी चोरटी मर्कटी वचा ॥ ३४ ॥ त्रायमाणा जया वीरा चोरकः कटुरोहिणी ॥ कायस्था शूकरी छत्रा अति च्छत्रा पलङ्कषा ॥ ३५॥ महापुरुषदन्ता च वनस्था नाकुलीद्वयम् ॥ कटम्भरा वृश्चिकाली शालिपर्णी च तैर्धृतम् ॥३६॥ सिद्धं चातुथिंकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् ॥ महापैशाचकं नाम घृतमेत द्यथामृतम् ॥३७॥ बुद्धिमेघास्मृतिकरं बालानां चाङ्गवर्द्धनम् ॥
और जटामांसी हर गंधमांसी स्थलकमलिनी कौंच वच ॥ ३४ ॥ लज्जावती अरणी काकोली गठौना कुटकी क्षीरकाकोली भिदारा धनियां सौंफ लाख ॥ ३५ ॥ शतावरी आंवला सर्पाक्षी सर्पगंधा खींप लघुमेंढासिंगी सालपर्णी इन्होंमें वृतको सिद्धकरै ॥ ३६ ॥ यह पैशाचकनामाला वृत चातुर्थिकञ्चर उन्माद ग्रह अपस्मारको नाशता है यह अमृत के समान घृत है ॥ ३७ ॥ यह बुद्धि मेधा स्मृतिको करता है और बालकों के अंगको बढाता है ॥
ब्राह्मीमैन्द्र विडङ्गानि व्योषं हिंगुजटां मुराम् ॥ ३८ ॥ रास्ना विशल्यां लशुनं विषघ्नीं सुरसां वचाम् ॥ ज्योतिष्मती नागविन्ना मनन्तां सहरीतकीम् ॥ ३९ ॥ काच्छीं च हस्तिमूत्रेण पिष्ट्वा च्छायाविशेोषिता॥ वर्तिर्न स्यांजनाले पधूपैरुन्मादसूदनी ॥४०॥
ब्राह्मी इंद्रायण वायविडंग सूंठ मिरच पीपल जटामांसी ॥ ३८ ॥ रायशण कलहारी लहसन तुलसी व मालकांगनी नागदमनी धमांसा हरडे ॥ ३९ ॥ सौराष्ट्रका इनसबों को हाथीके मूत्रमें पीस वत्ती बना छायामें सुखादेवै, फिर इन बत्तियोंको नित्य अंजन लेप धूप इन्होंमें युक्तकरनेसे उन्मादको नाशती है ॥ ४० ॥
अवपीडाश्च विविधाः सर्पपाः स्नेहसंयुताः ॥ कटुतैलेन चाभ्यगोध्मापयच्चास्य तद्रजः ॥ ४१ ॥ सहिंगुस्तीक्ष्णधूमश्च सूत्रस्थानोदितो हितः ॥
और कडुआ
और सिरसम तथा स्नेहोंसे युक्त अनेक प्रकारके अवपीड युक्त करने चाहिये, तेलकी मालिसकरै, और सिरसके चूर्णको नासिकामें युक्तकरै ॥ ४१ ॥ और हींगकरके सहित सूत्रस्थानमें कहाहुआ तीक्ष्ण धूमा युक्त करना चाहिये ॥
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