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(७९२)
अष्टाङ्गहृदयेशृगालशल्यकोलूकजलूकावृषबस्तजैः॥४२॥ मूत्रपित्तशकृल्लोमनखचर्मभिराचरेत्॥धूपध्मानांजनाभ्यङ्गप्रदेहपरिषेचनम् ॥
और गीदड शेह उल्लू बिलाई बैल बकरा ॥४२॥ इन्होंके मूत्र पित्ता विष्ठा रोम नख चाम इन्होंकरकं धूप धूमां अंजन मालिस लेप परिषेक ये सब युक्त करनेचाहिये ॥ ४३ ॥
धूपयेत्सततं चैनं श्वगोमत्स्यैस्तु पूतिभिः॥ और इस उन्मादवालेको श्वान गौ मत्स्य सुंदर सुगंधकी धूपदेवै ॥ वातश्लेष्मात्मके प्रायः पैत्तिके तु प्रशस्यते ॥४४॥ तिक्तकं जीवनीयं च सर्पिः स्नेहश्च मिश्रकः॥ शिशिराण्यन्नपानानि मधुराणि लघूनि च ॥ ४५॥ विशेषकरके वात कफके उन्मादमें यह विधिहै, और पित्तसे उपजेमें यह श्रेष्टहै ॥ १४ ॥ तिक्त और जीवनीयगणमें सिद्धकिया हुआ वृत और यमकसंज्ञक स्नेह और मधुर अन्नपान तथा ठंढे और हलके अन्न पानोंको करावै ॥ ४५ ॥
विध्यच्छिरां यथोक्तां वा तृप्तं मेध्यामिषस्य वा ॥
निवाते शाययेदेवं मुच्यते मतिविभ्रमात् ॥ ४६ ॥ अथवा तोफा मांसकरके तृप्त कियेहुयेका यथोक्त शिरा वेधन करावे, और वायुवाले स्थानमें सुवावे ऐसे इसका उन्माद दूर होताहै ॥ ४६ ॥
प्रक्षिप्यासलिले कूपे शोषयेद्वा बुभुक्षया ॥ आश्वासयेत्सुहृत्तं वा वाक्यैर्धर्मार्थसंहितैः ॥४७॥ ब्रूयादिष्टविनाशं वा दर्शयेदद्भुतानि वा ॥ बद्धं सर्षपतैलाक्तं न्यस्तं चोत्तानमातपे ॥४८॥ कपिकच्छ्राथवा ततैर्लोहतैलजलैः स्पृशेत्॥कशाभिस्ताडयित्वा वा बद्धं श्वभ्रे विनिक्षिपेत्॥४९॥ अथवा वीतशस्त्राइमजने स न्तमसे गृहे ॥ सर्पणोद्धृतदंष्ट्रेण दान्तैः सिंहैर्गजैश्च तम्॥५०॥ अथवा राजपुरुषा बहिर्नीत्वा सुसंयतम् ॥ भाययेयुर्वधेनेनंत जयन्तो नृपाज्ञया॥५१॥देहदुःखभयेभ्यो हि परं प्राणभयं मतम् ॥ तेन याति शमं तस्य सर्वतो विप्लुतं मनः॥५२॥ सिद्धा क्रिया प्रयोज्येयं देशकालाद्यपेक्षया ॥ अथवा जलसे रहित कूपमें गेरके तिसको क्षुधासे शोषण करावै और धर्म अर्थ इन्होंसे मिलेहुये वचनोंकरके समझावे ॥ ४७॥ अथवा तिसको प्रियका नाश सुनावे और अद्भुतवस्तु दिखलाबे, और तेलचुपारीकै बांधके फिर घाममें मूंधा सुखादेवै ॥ ४८ ॥ अथवा कौंचकी फलियोंको
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