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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७८१) शु विशेषादासुरान्ग्रहान् ॥ १२॥ कृत्यालक्ष्मीविषोन्मादज्वरा पस्मारपाप्म च ॥
और सिरसम वच हींग मालकांगनी दोनों हलदी मंजीठ सफेद चिरमठी वच सफेद गिरिकर्णी ॥ १० ॥ नींबके पत्ते करजुआ और शिरसके बीज देवदार झूठ मिरच पीपल इन औषधोंको चौगुने गोमूत्रमें सिद्धकर तिसमें घृतको सिद्धकरै ।। ११ ॥ यह सिद्ध कियाहुआ सिद्धार्थक नामवाला व्रत नस्य पान इन्होंमें युक्त करना चाहिये यह संपूर्ण ग्रहोंको नाशताहै और विशेषकारके दैत्यआदि ग्रहोंको नाशताहै ॥ १२ ॥ और कृत्या अलक्ष्मी विष उन्माद ज्वर अपस्मार दुःख इन्होंको नाशताहै ॥
एभिरेवौषधैर्वस्तवारिणा कल्पितो गदः ॥ १३ ॥ पाननस्यांजनालेपस्तनौ घर्षणयोजितः॥
गुणैः पूर्ववदुदिष्टो राजद्वारे च सिद्धिकृत् ॥ १४ ॥ और इनहीं औषधोंको वकरेके मूत्रमें सिद्धकर ॥ १३ ॥ पान नस्य अंजन लेप शरीरमें घिसना इन्होंमें युक्तकरै यह औषध पहले कहेहुये गुणोंको करताहै और राजद्वारमें सिद्धिको करताहै ॥१४॥ सिद्धार्थकव्योषवचाश्वगन्धानिशाद्वयंहिंगुपलाण्डुकन्दम्॥बीजं करक्षात्कुसुमंशिरीषात्फलं च वल्कश्च कपित्थवृक्षात्॥१५॥ समाणिमन्थं सनतं सकुष्ठं श्योनाकमूलं किणिही सिता च ॥ बस्तस्य मूत्रेण विभावितं तत्पित्तेन गव्येन गुडान्विदध्यात् ॥१६॥दुष्टत्रणोन्मादतमोनिशान्धानुइद्धकान्वारिनिमग्नदेहान॥ दिग्धाहतान्दर्पितसर्पदष्टांस्ते साधयन्त्यंजननस्यलेपैः ॥ १७॥
और शिरसम सूंठ मिरच पीपल वच आसगंध दोनों हलदी हींग प्याज करंजुआके बीज शिरसका पुष्प और फल और कैथकी छाल ॥ १५ ॥ सेंधानमक अगर कूठ सहोजनाकी जड किन्ही सफेद गोकर्णी इन्होंको बकरेके मूत्रमें भावनादे फिर गौक पित्तमें भावनादे फिर इसकी गोलियां वना लेथे ॥ १६ ॥ ये गोली युक्तको हुई दुष्टब्रण उन्माद रातोंधा और बन्धाके रोगवाले तथा जल में डूबेहुये शरीरवाले और लेपसे आहत हुये और मदवाले सोसे डसेहुये इन पुरुषोंके अंजन लेप नस्य इन्होंमें वरतने चाहिये ॥ १७ ॥
कार्पासास्थिमयूरपिच्छबृहतीनिर्माल्यपिण्डीतकत्वङ्मासी कदंशविट्तुषवचाकेशाहिनिर्मोचनैः ॥ नागेन्द्रद्विजशृङ्गहिङ्ग मरिचैस्तुल्यैः कृतं धूपनं स्कन्दोन्मादपिशाचराक्षससुरावे शज्वरनं परम् ॥ १८॥
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