________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(७७४)
अष्टाङ्गहृदये- . और कष्टके अनुसार बन्धसे ग्रहोंके नाशमें तिन तिनं उपद्रवोंको ॥६१॥ बालरोगप्रतिषेधाध्यायमें कहेहुये औषधोंकरके सम्यक् प्रकारसे उपारित करे ॥ ६२ ॥
इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृतोऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटी
कायां उत्तरस्थाने तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।। इत्यष्टांगहृदये कोमारतन्त्रं द्वितीयं समाप्तम् ।।
-OCESS500
चतुर्थोऽध्यायः। अथातो भूतविज्ञानमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर भूतविज्ञाननामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
लक्षयेज्ज्ञानविज्ञानवाक्चेष्टावलपौरुषम् ॥
पुरुषेऽपौरुषं यत्र तत्र भूतग्रहं वदेत् ॥१॥ जिस मनुष्यमें मनुष्यसे न होसकनेवाले ज्ञान विज्ञान वाणी चेष्टा बल पौरुषको लक्षित करे, तहा वैद्य भूतग्रहको करे अर्थात् जानेकी इस भूत लगाहै ॥ १ ॥
भूतस्य रूपप्रकृतिभाषागत्यादिचेष्टितैः॥ यस्यानुकारं कुरुते तेनाविष्टं तमादिशेत् ॥ २॥
सोऽष्टादशविधो देवदानवादिविभेदतः॥ जिस भूतके रूप प्रकृति भाषा गति आदि चेष्टाओंके आकारको करे तिसीभूतसे आवेष्टहुये तिस मनुष्यको कहना ॥ २ ॥ देव दानव आदिके भेदसे भूत अठारह प्रकारका होताहै ।
हेतुस्तदनुषक्तौ तु सद्यः पूर्वकृतोऽथवा॥३॥प्रज्ञापराधः सुतरा तेन कामादिजन्मना।लुप्तधर्मवताचारः पूज्यानप्यतिवर्त ते॥४॥तं तथा भिन्नमर्यादं पापमात्मोपघातिनम् ॥ देवादयोऽप्यनुन्नन्ति ग्रहाश्छिद्रप्रहारिणः॥५॥
और तिस भूतके अनुषंगमें प्रज्ञाका अपराध तत्काल अथवा पूर्वजन्मसे किया हुआ कारणहै ॥३॥ तिससे निरन्तर कायादिकोंकी उत्पत्ति होनेसे और बुद्धिके अपराधसे धर्मद्रत आचरणका लोप होजाताहै, और पूजा करने लायकोंकाभी अनादरकरके वर्तताहै ॥४॥ऐसे तिस भिन्न मर्यादावाले पापीको और आत्माके घात करनेवालेको देवते आदिक और छिद्र देखके प्रहार करनेवाले ग्रहभी मारदेतेहैं । छिद्रं पापक्रियारम्भःपाकोऽनिष्टस्य कर्मणः।।एकस्य शून्येऽव स्थानं श्मशानादिषु वा निशि ॥६॥ दिग्वासस्त्वं गुरोनिन्दा रतेरविधिसेवनम् ॥ अशुचेर्देवता_दिपरसृतकसंकरः ॥ ७॥
For Private and Personal Use Only