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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ७४४ ) www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भष्टाङ्गहृदये अनुच्छ्रास्य तु बद्धे वा दत्ते निःशेष एव च ॥ ४५ ॥ प्रविश्य क्षुभितो वायुः शूलतोदकरो भवेत् ॥ तत्राभ्यङ्गो गुदे स्वेदो वातघ्नान्यशनानि च ॥ ४६ ॥ और अनुच्छासकरके बस्तिके बद्धहुये मुखमें अथवा शेषपने से रहित ऐसी दी बस्तिमें ॥४५॥ भीतरकौ प्रत्रेशकर कुपितहुआ वायु शूल और चभकाको करता है तहां अभ्यंग और गुदामें स्वेद और वातनाशक भोजन और गुदामें अभ्यंग हित है ॥ ४६ ॥ द्रुतं प्रणीते निष्कृष्टे सहसोत्क्षिप्त एव वा ॥ स्यात्कटीगुदजंघो रुवस्तिस्तम्भार्त्तिभेदनम् ॥ ४७ ॥ भोजनं तत्र वातघ्नं स्वेदाभ्यंगाः सवस्तयः ॥ शीघ्र प्राप्त किये और शीघ्र निकासेहुये और वेगसे आक्षिप्त किये बस्तिमें कटि गुदा जांघ ऊरू बस्तिस्थान इन्होंका स्तंभ शूल भेदन ये उपजते हैं ॥ ४७ ॥ तहां वातनाशक भोजन स्वेद अभ्यंग हित हैं | पीड्यमानेऽन्तरा मुक्ते गुदे प्रतिहतोऽनिलः ॥ ४८ ॥ उरः शिरोरुजं सादमूर्वोश्च जनयेद्दली ॥ वस्तिःस्यात्तत्र बिल्वादिफलः श्यामादिमूत्रवान् ॥ ४९ ॥ और भीतरसे पीडित हुये और भीतरसे क्षतहुये गुदामें प्रतिहत हुआ वायु ॥ ४८ ॥ छाती और शिरमें शूल और जंघाओं में शिथिलताको यह बलवान् वायु उपजाता है, तहां त्रिल्वादि फलोंकरके और श्यामाआदि गणोंकरके संयुक्त और गोमूत्रसे युक्त बस्ति द्वित है ॥ ॥ ४९ ॥ अतिप्रपीडितः कोष्ठे तिष्ठत्यायाति वा गलम् ॥ तत्र वस्तिर्विरेकश्च गलपीडादिकर्म्म च ॥ ५० ॥ अति प्रपीडित हुआ बस्ति कोष्ठमें ठहरता है अथवा गलमें प्राप्त होता है तहां बस्तिकर्म जुलाब पीडादि कर्म ये हित हैं ॥ ५० ॥ वमनाद्यैर्विशुद्धश्च क्षामदेहबलानलम् ॥ यथाण्डं तरुणं पूर्ण तैलपात्रं यथा तथा ॥ ५१ ॥ freeप्रयत्नतो रक्षेत्सर्वस्मादपवादतः ॥ वमन विरेचन आदिकरके शुद्ध और कृशरूप देह बल अग्निवाले मनुष्यको जैसे तरुण अंडेको और जैसे पूरित किये तेलके पात्रको रक्षित करते हैं तैसे || ५१ ॥ वैद्य सब प्रकार के अपवादों से तिस पूर्वोक्त मनुष्यकी जतनसे रक्षा करता रहै ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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