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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७४३) और छार्दै मूर्छा अरुचि ग्लानि शूल नींद अंगमर्दन इन्होंकरके ।। ३६ ॥ और आमके लक्षणोंवाले दाहोंसे अत्यंत भोजनसे आच्छादितहुई स्नेहबस्तिको जाने तहाँ कटु और नमक द्रव्यों के क्वाथ और चूर्णोकरके पाचन हितहै ॥ ३७॥ तथा कोमल जुलाब और आमरोगमें कहाहुआ सब औषध हितहै।
विण्मूत्रानिलसङ्गार्तिगुरुत्वाध्मानहृद्ग्रहैः॥३८॥ स्नेहं विडावतं ज्ञात्वा स्नेहस्वेदैः सवर्त्तिभिः ॥ श्यामाबिल्वादिसिद्धैश्च निरूहैः सानुवासनैः॥३९॥
निहरेद्विधिना सम्यगुदावतहरेण च ॥ विष्ठा मूत्र वातका बंध भारीपन अफारा हृद्ग्रह इन्होंकरके ॥ ३८ ॥ विष्ठामें आवृतहुये स्नेहबस्तिको जानकर स्नेह स्वेद वर्ति और कालीनिशोत बिल्वादि गणके औषधोंमें सिद्धकिये निरूह और अनुवासनोंकरके ॥ ३९ ॥ तथा सम्यक् उदावर्तको हरनेवाली विधिकरके तिसको निकालै ।।
अभुक्ते शूनपायौ वा पेयामात्राशितस्य च॥४०॥गुदे प्रणिहितः स्नेहो वेगाद्धावत्यनावृतः॥उर्ध्व कायं ततः कण्ठादूर्वेभ्यः खे. भ्य एत्यपि ॥४१॥ मूत्रश्यामात्रिवृत्सिद्धो यवकोलकुलत्थवान ॥ तत्सिद्धतैलो देयःस्थान्निरूहः सानुवासनः॥४२॥ कण्ठा दागच्छतः स्तम्भकण्ठग्रहविरेचनैः॥छर्दिनीभिःक्रियाभिश्च तस्य कुर्यान्निबर्हणम् ॥४३॥
और नहीं भोजन करनेवालेमें और सूजीहुई गुदावालेमें और पेयामात्रभोजनको करनेवालेके ॥४०॥ गुदामें प्राप्तकिया स्नेहबस्ति वेगसे अनावृतहुआ ऊपरके शरीरमें दौडता है पीछे कंठसे ऊपरले छिद्रोंसे पतित होताहै ॥ ४१ ॥ गोमूत्र कालीनिशोत निशोत यव बेर कुलथी इन्होंके क्वाथोंमें सिद्ध तेल निरूहमें अथवा अनुवासनमें देना योग्य है ।। ४२ ॥ कंठसे निकसतेहुये स्नेहबस्तिको स्तंभ कंठग्रह जुलाब से वा छर्दिको नाशनेवाली क्रियाओंकरके निकाले ॥ ४३ ॥
नापक्कं प्रणयेत्स्नेहं गुदं स ह्युपलिम्पति ततः कुर्यात्सतृण्मोहकण्डूशोफान्क्रियाऽत्रवा ॥४४॥
तीक्ष्णो बस्तिस्तथा तैलमर्कपत्ररसे शृतम् ॥ नहीं पकेहुये स्नेहको नहीं देवै क्योंकि यह स्नेह गुदाको लेपित करताहै पीछे उपलिप्तहुई गुदामें यह तृषा मोह खाज शोजाको करताहै यहां क्रिया ॥ ४४ ॥ तीक्ष्ण बस्ति तथा आकके पत्तोंके रसमें पकाया हुआ तेल हितहै ।
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