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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७४५) दद्यान्मधुरहृद्यानि ततोऽम्ललवणौ रसौ॥ ५२ ॥
स्वादुतिक्तौ ततो भूयः कषायकटुको ततः ॥ पीछे स्वादु और तिक्त पीछे कसैले और कडुवे फिर मधुर और मनोहर पीछे अम्ल और सलोने ॥ १२ ॥ फिर स्वादु और तिक्त फिर कड्डुवे और कसैले रसोंको देतारहै ॥
अन्योऽन्यप्रत्यनीकानां रसानां स्निग्धरूक्षयोः ॥५३ ॥ व्यत्यासादुपयोगेन क्रमात्तं प्रकृतिं नयेत् ॥
सर्वसहः स्थिरबलो विज्ञेयः प्रकृतिं गतः॥ ५४॥ और आपसमें प्रतिपक्षवाले रसोंको और स्निग्ध तथा रूक्षको ॥ ५३ ॥ विपर्ययसे और उपयोगकरके क्रमसे तिस मनुष्यको यथोचित प्रकृतिको प्राप्त करै, और सब पदार्थोंको सहनेवाला और स्थिरवलवाला प्रकृतिको प्राप्त हुआ वह मनुष्य जानना योग्य है ॥ ५४ ॥ इति वरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
कल्पस्थाने पंचमोऽध्यायः ॥ ५॥
षष्ठोऽध्यायः।
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