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(७२०) . अष्टाङ्गहृदये- ..
चतुरंगुलमज्ञो वा कषायं पाययेद्धिमम्॥दधिमण्डसुरामण्डधात्रीफलरसैः पृथक्॥३५॥सौवीरकेण वा युक्तं कल्केन त्रैवतेनवा।।
अथवा अज्ञ मनुष्यभी अमलतासके शीत कषायको दहीके पानी मदिरा आँवलेके फलोंके रसके संग पृथक् पृथक् पान करावै॥३५॥अथवा कांजीके संग तथा निशोतके कल्कके संग पान करावै
दन्तीकषाये तत्प्रज्ञो गुडं जीर्णं च निक्षिपेत्॥ ३६॥
तमारष्टं स्थितं मासं पाययेत्पक्षमेव वा॥ और जमालगोटाकी जडके क्वाथमें अमलतासकी मजा और पुराने गुडको प्राप्त करै ।। ३६ ।। तिसको एक महीना अथवा १५ दिनोंतक स्थितकरके पान करावै ॥ त्वचं तिल्वकमूलस्य त्यक्त्वाभ्यन्तरवल्कलम् ॥३७॥ विशोष्य चूर्णयित्वा च द्वौ भागौ गालयेत्ततः॥रोधस्यैव कषायेण तृतीयं तेन भावयेत्॥३॥कषाये दशमूलस्यं तं भागं भावितं पुनः॥ शुष्कं चूर्णं पुनः कृत्वा ततः पाणितलं पिबेत् ॥३९॥ मस्तुमूत्र सुरामण्डकोलधात्रीफलाम्बुभिः॥
और सफेद लोधकी त्वचाको त्यागकरके और भीतरके वक्कलको ॥ ३७ ॥ सुखाके चूरन बना दोभाग लोधकी कषाय करके तीसरे चूरनके छानेहुए भागको तिसके संग भावितकरै ॥ ३८ ॥ पाछे तिस चूरनके भागको दशमूलके क्वाथमें भावितकरै फिर सुखाकर चूरनकर पश्चात् एक तोलेभर तिस चूरनको ॥ ३९ ॥ दहीके पानी गोमूत्र मदिरा मंड बेरका पानी आँवलेके फलके पानीके संग पावै ॥
तिल्वकस्य कषायेण कल्केन च सशर्करः॥४०॥
सघृतः साधितो लेहः स च श्रेष्ठं विरेचनम् ॥ और लोधके कषाय और कल्ककरके खांडसे सहित ॥ ४० ॥ और घृतसे सहित साधितकिया लेह श्रेष्ठ जुलाबहै ॥
सुधा भिनत्ति दोषाणां महान्तमपि सञ्चयम्॥४१॥ आश्वेवक ष्टविभ्रंशान्नैव तां कल्पयेदतः॥ मृदौ कोष्ठेऽवले वाले स्थविरे दीर्घरोगिाण ॥ ४२ ॥ थूहर दोषोंके अत्यंत संचयकोभी काटतीहै ।। ४१ ॥ और शीघ्र कष्टको विभ्रंश करनेवाली थूहरहै इसवास्ते कोमलकोष्ठवाला और बलसे रहित बालक वृद्ध दीर्घकालका रोगी इन मनुष्योंके अर्थ थूहरके दूधको कल्पित नहीं करै ॥ ४२ ॥
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