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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७१९) त्रिवृत्रायन्तिहपुषासातलाकटुरोहिणीः॥ स्वर्णक्षीरी च संचूर्ण्य गोमूत्रे भावयेत्यहम् ॥ २७॥
एष सर्वर्तुको योगः स्निग्धानां मलदोषहृत् ॥ निशोत त्रायमाण हाऊबेर शातला कुटकी सनाह इन्होंका चूर्णकर गोमूत्रमें तीन दिनतक भावना देवै ॥ २७ ॥ यह सब ऋतुओंमें योजित करनेको योग्य जुलाबहै यह स्निग्ध मनुष्योंके मल और दोषको हरताहै ॥
श्यामात्रिवृहरालम्भाहस्तिपिप्पलिवत्सकम् ॥२८॥ नीलिनी कटुका मुस्ता श्रेष्ठायुक्तं सुचूर्णितम् ॥ रसाज्योष्णाम्बुभिः शस्तं रूक्षाणामपि सर्वदा ॥ २९॥ और काली निशोत लाल निशोत धमांसा गजपीपल कुडा ॥ २८ ॥ नीलिनी अर्थात् काला दाना कुटकी नागरमोथा त्रिफला इन्होंके चूर्णको मांसके रस घृत गरम पानी के संग सबकालमें रूक्ष मनुष्योंके अर्थ देना श्रेष्टहै ॥ २९ ॥
ज्वरहृद्रोगवातासृगुदाव दिरोगिषु॥
राजवृक्षोऽधिकं पथ्यो मृदुर्मधुरशीतलः ॥ ३०॥ ज्वर हृद्रोग वातरक्त उदावर्त आदि रोगवालोंके अर्थ कोमल मधुर और शीतल अमलतास अत्यन्त पथ्य है ॥ ३० ॥
वाले वृद्धे क्षते क्षीणे सुकुमारे च मानवे ॥
योज्यो मृद्वनपायित्वाद्विशेषाच्चतुरंगुलः ॥३१॥ चालक वृद्ध क्षतक्षीण सुकुमार मनुष्योंमें कोमल और अनपाथिपनेसे विशेषकरके प्रयुक्त करना योग्य है ॥ ३१ ॥
फलकाले परिणतं फलं तस्य समाहरेत् ॥तेषां गुणवतांभारं सिकतासु विनिक्षिपेत्॥३२॥सप्तरात्रात्समुद्धत्यशोषयेच्चातपे ततः ॥ ततो मज्जानमुद्धत्य शुचौ पात्रे निधापयेत् ॥ ३३॥ फलकालमें अमलतासके पकेहुये फलको लेवै, गुणवाले तिन फलोंको आठहजार ८००० तोलेभर ले वालुरतमें स्थापितकरै ॥ ३२ ॥ सातरात्रिसे उपरांत निकास घाममें सुखावै पीछे तिन फलोंकी मजाको निकास सुंदरपात्रमें स्थापितकरै ॥ ३३ ॥
द्राक्षारसेन तं दद्यादाहोदावर्तपीडिते ॥
चतुर्वर्षे सुखं बाले यावद्दादशवार्षिके ॥ ३४ ॥ तिस मज्जाको दाखके रसके संग दाह और उदावर्तसे पीडित मनुष्यके अर्थ और चार वर्षसे लगाय बारह वर्षतकके बालकके अर्थ देवै यह सुखरूप जुलाव है ॥ ३४ ॥
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