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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७२१) कल्प्या गुल्मोदरगरत्वग्रोगमधुमेहिषु॥पाण्डौ दृषीविष शोफे दोषविभ्रान्तचेतसि ॥४३॥सा श्रेष्ठा कण्टकैस्तीक्ष्णैर्बहुभिश्च समाचिता॥ गुल्म उदररोग विष त्वचारोग मधुमेह इन रोगवालोंमें और पाण्डुमें और दूषीविषमें और दोषों करके विभ्रांत चित्तवाले मनुष्यके यह थूहर कल्पित करनी योग्य है ॥ ४३ ॥ और बहुतसे तीक्ष्ण कांटोंकरके व्यातहुई थूहर श्रेष्ट होतीहै ॥
द्विवर्षा वा त्रिवर्षां वा शिशिरान्ते विशेषतः॥४४॥ ता पाठयित्वा शस्त्रेण क्षीरमुद्धारयेत्ततः॥ बिल्वादीनां बृहत्योर्वाक्काथेन सममेकशः॥ ४५ ॥ मिश्रायित्वा सुधाक्षीरं ततोऽङ्गारेषु शोषयेत् ॥ पिबेत्कृत्वा तु गुटिकां मस्तुमूत्रसुरादिभिः॥४६॥
और विशेषपनेसे शिशिरऋतुके अंतमें दोबरसती अथवा सीनबरसकी उपजी ॥ ४४ ॥ तिस थूहरको शस्त्रसे फाड दूधको निकासै पीछे बेलगिरी आदिकोंके तथा दोनों कटेहालयोंके काथमें एक एकके संग ॥ ४५ ॥ मिलाके तिस थूहरके दूधमें अंगारोंमें सुखावै पीछे गोली बना दहीका पानी गोमूत्र मदिरा आदिके संग पीवै ॥ ४६ ॥
त्रिवृतादीन्नववरां स्वर्णक्षीरी ससातलाम् ॥
सप्ताहं स्नुक्पयःपीतानसेनाज्येन वा पिबेत् ॥ ४७॥ त्रिवृत् स्यामा अमलतास सफेद लोध थूहर शंखिनी शातला जमालगोटेकी जड द्रवंती इन नौओंको और त्रिफला चोष शातला इन्होंको सातवार थूहरके दूधमें भावितकरी हुइयोंको मांसके रसके संग अथवा घृतके संग पावै ॥ ४७॥
तद्वद्वयोषोत्तमाकुम्भनिकुम्भादीन्गुडाम्बुना ॥ और तैसेही सूंठ मिरच पीपल त्रिफला निशोत जमालगोटेको जडको गुडके रसके संग पावै ।।
नातिशुष्कं फलं ग्राह्यं शंखिन्या निस्तुषीकृतम् ॥४८॥ सतलायास्तथा मूलं ते तु तीक्ष्णविकोषिणी॥
श्लेष्मामयोदरगरश्वयवादिषु कल्पयेत् ॥ ४९ ॥ और शंखिनीका अत्यंत सूखा न हो तुषसे वर्जितहो फल ग्रहणकरना योग्य है ॥ ४८ ॥शातलाकी जडको ग्रहणकरै ये दोनों तीक्ष्ण जुलाब हैं इन दोनोंको कफरोग गरोदर शोजा आदिमें कॉल्पितकरै ।। ४९॥
अक्षमात्रं तयोः पिण्डं मदिरालवणान्वितम् ।। हृद्रोगे वातकफजे तद्वगुल्मे प्रयोजयेत् ॥ ५० ॥
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