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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१५). दे मध्याह्नके उपरान्त बस्तिकर्मकरे । व्याधिकी अवस्था यह कि ज्वरमें काढा दे विरेचनमें दूध दे । अवस्थामें दी हुई औषधी रोग शान्त करती है.
शरीरजानां दोषाणां क्रमेण परमौषधम् । . .
बस्तिर्विरेको वमनं तथा तैलं घृतं मधु ॥२५॥ शरीरमें उत्पन्न होनेवाले दोषोंका क्रमकरके परम औषध बस्ति जुलाब वमन तेल घृत शहद कहे हैं । वात रोगकी बस्ति स्नेह काथादि । पित्त गुदाके मार्गसे निकालना । कफका वमन कराना परमौषधी है।
धीधैर्यात्मादिविज्ञानं मनोदोषौषधं परम् ।
भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् ॥ २६ ॥ बुद्धि धैर्य आत्माआदि ज्ञान ये मनसे उत्पन्न हुये रोगोंकी परम औषध हैं, और वैद्य, द्रव्य, उपचारक अर्थात् सेवक, रोगी ये चारों चिकित्साके पाद अर्थात् पैर हैं ॥
चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ।
दक्षस्तीर्थात्तशास्त्रार्थों दृष्टका शुचिभिषक् ॥ २७॥ चिकित्सित मनुष्यके चार गुण कहे हैं कर्ममें चतुर और गुरुमुखसे वैद्यकशास्त्रके ग्रहण करने बाला, कोको देखे हुये, अर्थात् अभ्यासयुक्त और पवित्र वैद्य होवे ।
बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् ।
अनुरक्तः शुचिर्दक्षो बुद्धिमान्पारचारकः ॥ २८॥ औषधीभी चार प्रकारकी हैं बहुतसे कल्पोंसे संयुक्त और बहुतगुणोंवाला और श्रेष्ट देशमें उत्पन्न जो श्मशान चैत्य वल्मीककी न हो देनेवालेके योग्य हो जो देशकाल बलाबल देखकर दी जाय वह योग्य है और अनुरक्त अर्थात् प्रीतिवाला और पवित्र और चतुर और बुद्धिमान् ऐसा परिचारक होवे।
आढ्यो रोगी भिषग्वश्यो ज्ञापकः सत्त्ववानपि ।
सर्वोषधक्षमे देहे यूनः पुंसो.जितात्मनः ॥२९॥ धन आदिकरके युक्त, वैद्यके वशीभूत अर्थात् वैद्यके कहे अनुसार करनेवाला ज्ञापक रोगकी न्यून अधिकता जान्नेवाला सत्ववाला अर्थात् धैर्यवान् रोगी होवे, और युवा अवस्थावाले जितात्मा मनुष्यके सब औषवोंको सहनेवाल देहमें जो व्याधि होती है वह सुखसाध्य है स्त्रीमें धैर्य न्यून होता है इससे पुरुष कहा ॥ २९ ॥
अमर्मगोऽल्पहेत्वग्ररूपरूपोऽनुपद्रवः । अतुल्यदृष्यदेशर्तुप्रकृतिः पादसम्पदि ॥३०॥
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