________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( १४ )
अष्टाङ्गहृदये ।
दोष उत्पन्न हुए आगन्तुक कहते हैं वातादि पहले विषमताको प्राप्त हो पीछे व्यथा करते हैं आगन्तुक पहले होकर पीछे वातादिको कुपित करते हैं ॥
तेषां कायमनोभेदादधिष्ठानमपि द्विधा ॥ २० ॥
तिन रोगोंका शरीर और मनके भेदसे अधिष्ठान दो प्रकारका है। ज्वर पित्तादिकायामें, मद मूर्च्छा संन्यासग्रह रागद्वेष अपस्मार मन में होते हैं ।
रजस्तमश्च मनसो द्वौ च दोषावुदाहृतौ ॥ दर्शनस्पर्शनप्रश्नैः परीक्षेताथ रोगिणम् ॥ २१ ॥
रजोगुण और तमोगुण ये दोनों मनके दोष कहे हैं पीछे दर्शन अर्थात् देखना स्पर्शन अर्थात् छूना प्रश्न अर्थात् पूछना इन्होंसे रोगी की परीक्षा करै । कासमेहादि वर्णदर्शन से ज्वरगुल्मादिको स्पर्शसे शूलरोचकादिको पूछनेसे जाने ||
रोगं निदानप्राग्रूपलक्षणोपशयाप्तिभिः । भूमिदेहप्रभेदेन देशमाहुरिह द्विधा ॥ २२ ॥
और निदान, पूर्वरूप, लक्षण, उपशय संप्राप्ति इन्होंसे रोगकी परीक्षा करै, पृथिवी और देहका भेदकरके वैद्यजन देशको दो प्रकारसे कहते हैं । निदान रोगका आदि कारण । पूर्वरूप यह कि व्याधि उत्पन्न होनेसे पहले उसका लक्षण होना, लक्षण यह कि जिससे विशेषकर रोग जाना जाय, उपशय आहारादिका उपयोग सुखसे होना संप्राप्ति उसका प्राप्त होना. जाङ्गलं वातभूयिष्ठमनूपं तु कफोल्बणम् ।
साधारणं सममलं त्रिधा भूदेशमादिशेत् ॥ २३ ॥
वायुकरके जो भूयिष्ठ अर्थात् अतिव्याप्त हो तिसको जांगलदेश कहते हैं. और जल करके जो अतिव्याप्तहोतिसको अनूपदेश कहते हैं, वह कफप्रधान देश है और समानदोषोंवालेको साधारणदेश कहते हैं; ऐसे तीन प्रकारसे भूदेशको वैद्य प्रकाशितकरै। जांगल देशके औषधी जीवादि वायुप्रधान होते हैं अनूपदेशके कफप्रधान और समके वातादि समदोष युक्त होते हैं ।
क्षणादिर्व्याध्यवस्था च काले भेषजयोगकृत् ॥
शोधनं शमनं चेति समासादौषधं द्विधा ॥ २४ ॥
क्षणआदि व्याधि की अवस्था जो है यह औषध योगकृत् काल है और शोधन तथा शमन ऐसे औषध विस्तार से दोप्रकारके हैं । काल दोप्रकारका है क्षणघडी आदि लक्षणवाला और व्याधि वही औषधी रोग दूर करनेमें समर्थ है, जैसे पूवाहमें वमन मध्याह्नमें विरेचन
अवस्था
For Private and Personal Use Only