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(१६)
अष्टाङ्गहदयेमर्मसे अन्य अंगमें उत्पन्नहुआ और अल्पनिदान और पूर्वरूप संयुक्त, और उपद्रवोंसे रहित. और दृष्य देश ऋतु प्रकृतिकी तुल्यतासे रहित । __ ग्रहेष्वनुगुणेष्वेकदोषमार्गो नवः सुखः।
शस्त्रादिसाधनः कृच्छ्रः सङ्करे च ततो गदः ॥ ३१ ॥ और सूर्यादि ग्रहोंकी अनुकूलतामें एकदोषके मार्गसे संयुक्त, नवीन अर्थात् थोडे दिनका उत्पन्न हुआ हो वह सुखसाध्य है वह रोग विशेषकरके साध्यके लक्षणोंसे विपरीतपने में भी साध्य है, और शस्त्रआदिकरके साधनके योग्य, और संकर अर्थात् मिलापसे युक्त रोग कष्टसाध्य होताहै । अर्थात् कठिनतासे उपचार करनेसे जाता है ॥
शेषत्वादायुषो याप्यः पथ्याभ्यासाद्विपर्यये ॥
अनुपक्रम एव स्यात् स्थितोऽत्यन्तविपर्यये ॥३२॥ और आयुकी शेषतासे पथ्यको अभ्यासकरनेवाला रोगी याप्य कहाता है और अत्यंत विपर्ययमें स्थितरोगी असाध्य हो जाताहै।
औत्सुक्यमोहारतिकृष्टरिष्टोक्षनाशनः ।
त्यजेदात भिषग्भूपैर्दिष्टं तेषां द्विषं द्विषम् ॥ ३३ ॥ विषय अथवा अन्यकार्यमें आसक्तहुआ और वैद्यकी आज्ञाको नहीं करनेवाला मोह ग्लानिको करनेवाला अरिष्टसे संयुक्त, कर्मेंद्रियोंके गुणोंको नाशनेवाला और वैद्य तथा राजाका वैरी और अन्योंसेभी वैरकरनेवाला ।
हीनोपकरणं व्यग्रमविधेयं गतायुषम् ।
चण्डं शोकातुरं भीरुं कृतघ्नं वैद्यमानिनम् ॥ ३४ ॥ सामग्रियोंसे हीन, बिगडेहुये चित्तवाला आयुसे रहित,क्रोधी और शोकसे पीडित और डरनेवाला कृतघ्न और आपको वैद्य माननेवाले रोगीको वैद्य त्यागदे अर्थात् ऐसे रोगीकी चिकित्सा न करे ।
तन्त्रस्यास्य परञ्चातो वयतेऽध्यायसंग्रहः।
आयुष्कामदिन-हारोदागानुत्पादनद्रवाः ॥३५॥ . इसके अनंतर इस तंत्र अर्थात् ग्रंथके अध्यायसंग्रहको वर्णनकरेंगे, आयुष्कामीय १ दिनचर्या २ ऋतुचर्या ३ रोगानुत्पादनीय ४ द्रवद्रव्यविज्ञानीय ५ ।
अन्नज्ञानान्नसंरक्षामात्राद्रव्यरसाश्रयाः॥
दोषादिज्ञानतद्भेदतचिकित्साद्युपक्रमः ॥ ३६ ॥ अन्नस्वरूपविज्ञानीय ६ अन्नरक्षा ७ मात्राशितीय ८ द्रव्यादिविज्ञानीय ९ रसभेदीय १० दाषादिविज्ञानीय ११ दोषभेदीय १२ दोषोपक्रमणीय १३ द्विविधोपक्रमणीय १४ ।
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