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कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७१३) हृतमध्ये फले जीणे स्थितं क्षीरं यदा दधि ॥ .
स्यात्तदा कफजे कासश्वासे वम्यं च पाचयेत् ॥ २९॥ जीर्णहुये ताडफलके मध्यमेंसे गूदेको निकास तहां स्थितकिया दूध जो दहीभावको प्राप्त होवै तिसको कफी खांसी और श्वासमें वमनके अर्थ पान करावै ॥ २९ ॥
मस्तुना वा फलान्मध्यं पाण्डुकुष्ठविषार्दितः॥
तेन तकं विपक्कं वा पिबेत्समधुसैन्धवम् ॥३०॥ कडवी सूठोके मध्यभागको पांडु कुष्ट विषसे पीडितहुआ मनुष्य दहीके पानीके संग पावै अथवा तिसी कडवीतूंबीके गूदेके संग पकाया हुआ और शहद तथा सेंधानमकसे संयुक्तकिया तक पीवै ॥ ३०॥
भावयित्वाजदग्धेन बीजं तेनैव वा पिबेत् ॥
विषगुल्मोदरग्रन्थिगण्डेषु श्लीपदेषु च ॥ ३१॥ कडवी तूंबीके बीजको बकरीके दूध में भावितकर पीछे बकरीके दूधके संग पावै यह योग -विष गुल्मरोग उदररोग ग्रंथि गलगंड श्लीपदमें हितहै ॥ ३१ ॥
सक्तुभिर्वा पिवेन्मन्थं तुम्बीस्वरसभावितैः॥
कफोद्भवे ज्वरे कासे गलरोगेष्वरोचके ॥३२॥ नूंबीके स्वरसकरके भावितकिये सत्तुओंकरके मंथको कफसे उत्पन्नहुये ज्वर खांसी गलरोग अरोचकमें पीवै ॥ ३२ ॥
गुल्मे ज्वरे प्रसक्ते च कल्कं मांसरसैः पिबेत् ॥ नरः साधु वमत्येवं नच दौर्बल्यमश्नुते ॥३३॥ तुम्ब्याः फलरसैः शुष्कैः सपुष्पैरवचूर्णितम् ॥
छर्दयेन्माल्यमाघ्राय गन्धसम्पत्सुखोचितः ॥ ३४ ॥ गुल्ममें तथा प्रसक्त अर्थात् पुराने वरमें तूंबेके कल्कको मांसके रसके संग पीवै ऐसे करनेसे मनुष्य अच्छीतरह वमन करताहै और दुर्बलपनेको नहीं प्राप्त होताहै ॥ ३३ ॥ तूंबीके शुद्धहुये फल
और रसोंकरके तथा तूंबीके पुष्पोंकरके गंधकी संपत्तिवाले किये चूर्णको अल्प सूंघकर सुखी मनुष्य अच्छीतरह वमन करताहै ॥ ३४ ॥
कासगुल्मोदरगरे वाते श्लेष्माशयस्थिते ॥ कफे च कण्ठवक्रस्थे कफसंचयजेषु च ॥ ३५॥ धामार्गवो गदेष्विष्टः स्थिरेषु च महत्सु च ॥
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