________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(७१४)
अष्टाङ्गहृदयेखांसी गुल्मरोग उदररोग विषमें कफके आशयमें स्थितहुये वायुमें कंध और मुखमें स्थितहुये कफमें और कफके संचयसे उपजनेवाले अरोचक आदि रोगोमें ॥ ३५ ॥ स्थिर और बढेहुये रोगोंमें कडवीतोरीका फल बांछित है ॥
जीवकर्षभको वीराकपिकच्छू शतावरी ॥३६॥ काकोली श्रा वणी मेदा महामेदा मधूलिका॥तद्रजोभिः पृथग्लेहा धामार्ग वरजोऽन्विताः ॥३७॥ कासे हृदयदाहे च शस्ता मधुसिताहताः॥ ते सुखाम्भोऽनुपानाः स्युः पित्तोष्यसहिते कफे ॥३८॥ धान्यतुम्वरुयूषेण कल्कस्तस्य विषापहः ॥
और जीवक ऋषभक ब्राह्मी कौंचके बीज शतावरी ॥ ३६ ॥ काकोली गोरखमुंडी मेदा महामेदा मुलहटी इन्होंके चूर्णोकरके और कडुवीतोरीके चूर्णसे युक्त ॥ ३७ ॥ शहद और मिसरीसे अत्यंत द्रवरूप किये पृथक् पृथक् लेह खांसी और हृदयके दाहमें श्रेष्ठहैं और पित्तकी अग्निकरके सहितहुये कफमें ये पूर्वोक्त लेह गरमपान के अनुपानसे ग्रहण किये जाते हैं ॥ ३८ ॥ धनियां और ( तुम्बरु ) चिरफलके यूषकरके कडवीतोरीका ग्रहण किया कल्क विषको नाशता है ।
बिम्ब्याः पुनर्नवाया वा कासमर्दस्य बा रसे ॥३९॥ एकं धामार्गवं देवा मानसे मृदितं पिबेत् ॥
तच्छ्रतक्षीरज सर्पिः साधितं वा फलादिभिः ॥४०॥ और कडवीतोरीके रसमें अथवा शांठोके रसमें अथवा कसोंदीके रसमें ॥ ३९ ॥ एक अथवा दो कडवीतोरीके फलोंको मर्दितकर मनके विकारमें पीवै अथवा मैनफल कडवीतोरी कडवीतूंबी लालऊंगा कूडा इन्होंकरके साधित किये घृतको पावै ॥ ४०॥
क्ष्वेडोऽतिकटुतीक्ष्णोष्णः प्रगाढेषु प्रशस्यते ॥
कुष्ठपाण्ड्डामयप्लीहशोफगुल्मगरादिषु ॥ ४१॥ अत्यंत कडवीतोरी अतिकटु तीक्ष्ण गरम होनेसे अत्यंत दृढरूप कुष्ट पांडुरोग प्लीह रोग शोज गुल्म विष आदिमें श्रेष्ट है ।। ४१ ॥
पृथक्फलादिषट्कस्य क्वाथे मांसभनूपजम् ॥
कोशातक्या समं सिद्धं तद्रसं लवणं पिवेत् ॥ ४२ ॥ मैंनफल देवताड कडवीतूंवी लालऊंगा कडवीतोरी कुडा इन छहौंके काथमें कडवी तोरी के समान सिद्ध किये अनूपदेशके मांसके रसको नमकसे संयुक्तकर पीवै ॥ ४२ ॥
फलादिपिप्पलीतुल्यं सिद्धं क्ष्वेडरलेथवा ॥ क्ष्वेडक्वाथे पिबेत्सिद्धं मिश्रमिक्षुरसेन वा ॥ ४३ ॥
For Private and Personal Use Only