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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(७०५) भकत्वपत्रनखवालकैः ॥ ४३ ॥प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठासारिवेन्द्रीबितुन्नकैः॥चतुःप्रयोगं वातासृपित्तदाहज्वरार्तिनुत्॥४४॥ मुलहटी ४०० तोले ले चतुर्थांश शेषरहै ऐसा क्वाथ बनावै पीछे २५६ तोले तेल २५६ तोले दूध और चार चार तोलेभर वक्ष्यमाण औषधोंके कल्क इन्होंको मिलाके पकावै ॥ ४१ ॥ शालपर्णी मुशली दूब दूधी शतावरी चंदन अगर त्रिपादि वालछड मेदा महामेदा मुलहटी॥४२॥ काकोली क्षीरकाकोली शौंफ ऋद्धि पद्माख जीवंती जीवक ऋषभक दालचीनी तेजपात नखी नेत्रवाला ॥ ४३ ॥ कमल मजीठ अनंतमूल इन्द्रायण परिपेलव इन्होंकरके पकावै चार प्रयोगोंवाला यह तेल वातरक्त पित्त दाह ज्वर इन्होंको नाशता है ॥ ४४ ॥
बलाकल्ककषायाभ्यां तैलं क्षीरसमं पचेत् ॥ सहस्रशतपाकंतदातासृग्वातरोगनुत् ॥४५॥ रसायनं मुख्यतममिन्द्रियाणां प्रसादनम् ॥ जीवनं बृंहणं स्वयं शुक्रासृग्दोषनाशनम्॥४६॥ खरैहटीके कल्क और कार्थोकरके दूधके समान तेलको पकावै हजारवार अथवा १०० वार पकायाहुआ यह तेल वातरक्त और वातरोगको नाशताहै ॥४५॥ यह अत्यंत प्रधानरूप रसायनहै और इंद्रियोंको प्रसन्न करताहै और जीवनहै और वृद्धिको करनेवालाहै और स्वरमें हितहै वीर्य और रक्तके दोषको नाशताहै ॥ ४६॥
कुपिते मार्गसंरोधान्मेदसो वा कफस्य वा ॥ अतिवृद्धयानिले शस्तमादौ स्नेहनबृंहणम् ॥४७॥ कृत्वा तत्राढ्यवातोक्तं वात
शोणितिकं ततः॥ भेषजं स्नेहनं कुर्याद्यच्च रक्तप्रसादनम्॥४८॥ मेदकी वृद्धिकरके अथवा कफकी अतिवृद्धिकरके मार्गके रुकजानेसे कुपित हुये वातमें स्नेहन और बृंहण औषध श्रेष्टहै ।। ४७ ॥ तहां मेदसे आच्छादितहुये तथा कफसे आच्छादितहुये वातमें वातरक्तमें कही चिकित्सा करनी योग्यहै पीछे वातरक्तकी चिकित्सामें कहेहुये स्नेहन और रक्तको प्रसन्न करनेवाली औषधको करै ॥ ४८ ॥
प्राणादिकोपे युगपद्यथोदिष्टं यथामयम् ॥
यथासन्नं च भैषज्यं विकल्प्यं स्याद्यथाबलम् ॥४९॥ प्राण आदि पांचवायुओंके एक कालमें उपजे कोपमें यथायोग्य कहेहुये और वातव्याधिकी चिकित्साके अनुसार और प्राणआदिके कोपसे उपजे रोगादिकी अपेक्षामे संयुक्त और प्राणआदिके बलके अनुसार औषध कल्पित करना योग्यहै ॥ ४९॥
नीते निरामतां सामे स्वेदलंघनपाचनैः॥
रूक्षैश्चालेपसेकायैः कुर्यात्केवलवातनुत् ॥ ५० ॥ स्वेद लंघन पाचन इन्होंकरके और रूखे लेप और सेंक आदिकरके निरामताको प्राप्तहुये आमवातमें शुद्धवातकी चिकित्साको करै ॥ १०॥
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