SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 769
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७०६) अष्टाङ्गहृदयेशोषाक्षेपणसङ्कोचस्तम्भस्वपनकम्पनम्॥ हनुासोऽदितं खाज्यं पाङ्गुल्यं खुडवातता ॥ ५१ ॥ सन्धिच्युतिः पक्षवधो मेदो मजास्थिगा गदाः॥एते स्थानस्य गाम्भीर्यात्सिध्येयुर्य्यनतो न वा ॥ ५२ ॥ तस्माज्जयेन्नवानेतान्बलिनो निरुपद्रवान् ॥ अंगशोष आयाम अंगसंकोच स्तंभ चेतनपनेका अभाव कंप हनुभ्रंश अर्दित खंजता पंगुता चातरक्त ॥ ५१ ॥ संधिभ्रंश पक्षाघात मेद मज्जा हड्डी इन्होंमें स्थित होनेवाले ये रोग स्थानके गंभीरपनेसे उत्पन्नहुये और नवीन उपजे ये रोग यत्नसे सिद्ध होतेहैं ॥ १२॥ तिसकारणसे बलवाले मनुष्यके नवीन उपजे और उपद्रवोंसे रहित इन अंगशोष आदि रोगोंको वैद्य चिकित्सितकरै ।। वायौ पित्तावृते शीतामुष्णां च बहुशःक्रियाम्॥५३॥ व्यत्या साद्योजयेत्सर्पिर्जीवनीयं च पाययेत् ॥ धन्वमांसं यवाः शालिविरेकक्षीरवान्मृदुः॥ ५४॥ सक्षीरा बस्तयः क्षीरं पञ्चमूल बलाशृतम् ॥ कालेऽनुवासनं तैलं मधुरौषधसाधितम् ॥५५॥ यष्टीमधुबलातलघृतक्षीरैश्च सेचनम् ॥पञ्चमूलकषायेण वारिणा शीतलेन च ॥५६॥ और पित्तकरके आच्छादितहुये वायुमें शीतल और गरम क्रियाको बहुतवार ।। ५३ ॥ व्यत्याससे योजितकर और जीवनीयगणके औषधोंमें सिद्ध किये घृतको पान करावै और जांगलदेशका मांस यव शालिचावल और दूधसे संयुक्त तथा कोमल जुलाबको प्रयुक्त करै ॥ ५४ ।। दूधसे संयुक्त करी बस्ति और खरेहटीमें पकाया हुआ दूध और मधुर औषधोकरके साधित किये तेलकरके सम. यमें अनुवासनको प्रयुक्त करै ॥ ५५ ॥ मुलहटी खरेहटी तेल घत दूध इन्होंकरके और पंचमूलके काथकरके और शीतलपानीकरके सेचित करै ॥ ५६ ॥ कफावते यवान्नानि जांगला मृगपक्षिणः॥ स्वेदास्तीक्ष्णा निरूहाश्च वमनं सविरेचनम् ॥ ५७॥ पुराणसर्पिस्तैलं च तिलसर्षपजं हितम् ॥ कफसे आवृतहुये वायुमें यवोंका अन्न और जांगलदेशके मृग और पक्षियोंका मांस और स्वेदकर्म और तीक्ष्ण निरूहबस्ति तीक्ष्ण वमन तीक्ष्ण जुलाब॥१७॥पुराना घृत तिल और सरसोंका तेल ये हित हैं । संसृष्टे कफपित्ताभ्यां पित्तमादौ विनिर्जयेत् ॥ ५८॥ और कफ पित्त करके मिलेहुये वातमें प्रथम पित्तको हरै पीछे कफको ॥ १८ ॥ कारयेद्रक्तसंसृष्टे वाते शोणितिका क्रियाम्॥ स्वेदाभ्यंगरसाः क्षीरं स्नेहो मांसावृते हितः॥५९॥प्रमेहमेदोवातघ्नमाढयवातेभिपग्जितम् ॥महास्नेहोऽस्थिमजस्थे पूर्वोक्तं रेतसावृते॥६०॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy