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(७०२)
अष्टाङ्गहृदयेपीसै इन्होंके कल्कोंकरके लोहके पात्रको लेपितकर मध्याह्न समयमें इसको जो आगे कहाहै अर्थात् “कोकिलाक्षकाशाक खावै ॥ १७ ॥ सब दोषोंवाले और शूलसे संयुक्त वातरक्तमें यह हित है।
कोकिलाक्षकनियूहः पीतस्तच्छाकभोजिना ॥१८॥ कृपाभ्यास इव क्रोधं वातरक्तं नियच्छति॥पञ्चमूलस्य धाच्या वा रसैलेंलीतकी वसाम् ॥ १९ ॥ खुडं सुरुढमप्यंगे ब्रह्मचारी पिवअयेत् ॥ इत्याभ्यन्तरमुद्दिष्टं कर्म बाह्यमतः परम् ॥ २०॥
और कोलिस्तांके शाकको भोजन करनेवाले मनुष्यको पान किया कोलिस्तांका काथ वातरक्तको दूर करता है ।। १८ ॥ जैसे दयाका अभ्यास क्रोधको दूर करता है पंचमूलके रसके संग अथवा आमलेके रसके संग गंधकको ॥ १९ ॥ पान करता हुआ और ब्रह्मचर्यमें स्थित मनुष्य वातरक्तो जीतता है, ऐसे भीतरके वातरक्तके अर्थ चिकित्सा कही, अब इसके अनंतर बाहिरके वात-रुक्तकी चिकित्साको कहेंगे ॥ २०॥
आरनालाढके तैलं पादसर्जरसं शृतम् ॥ प्रभूते खंजितं तोये ज्वरदाहार्तिनुत्परम् ॥ २१॥ और २५६ तोले कांजीमें चौथाई भाग तेल और रालके रसको पकाचे पीछे बहुतसे जलमें मथित करै यह आतिशयकरके ज्वर और दाहको नाशता है ॥ २१ ॥ . समधूच्छिष्टमञ्जिष्टं ससर्जरससारिवम् ॥
पिण्डतैलं तदभ्यंगाद्वातरक्तरुजापहम् ।। २२॥ __ और इसी तेलमें मोम मजीठ राल शारिवा इन्होंको मिलानेसे पिंडतेल कहाताहै, यह मालिश करनेसे वातरक्तकी पीडाको नाशता है ॥ २२ ॥
दशमूले शृतं क्षीरं सद्यः शूलनिवारणम् ॥
परिषेकोऽनिलप्राये तहत्कोष्णेन सर्पिषा ॥२३॥ दशमूलमें पकाया हुआ दूध तत्काल शूलको नाशता है, और वातकी अधिकतावाले शूलमें कछुक गरम किये घृतकरके परिपेक करना हित है ॥ २३ ।।
स्नेहैमधुरसिद्धैर्वा चतुर्भिः परिषेचयेत्॥स्तम्भाक्षेपकालात कोष्णैर्दाहे तु शीतलैः॥ २४॥तद्वद्गव्याविकच्छागैःक्षीरैस्तैल विमिश्रितैः॥ निकाथैर्जीवनीयानां पञ्चमूलस्य वा लघोः॥२५॥ स्तंभ आक्षेपक शूलसे पीडित मनुष्यको कछुक गरमकिये और मधुर द्रव्योंमें सिद्ध किये चारप्रकारके स्नेहोंकरके सेचितकर और दाहमें शीतलरूप तिन्ही नेहोंकरके सेचितकरै ॥ २४ ॥ तैसेही गाय बकरी भेड इन्होंके तेलसे मिलेहुये दूधोंकरके सेचित करे. अथवा जीवनीयगणके औषधोंके कार्योंकरके अथवा लघुपंचमूलके कार्योंकरके स्तंभ आदिसे पीडित मनुष्यको सेचितकरें।
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